सम्राट अशोक | Samrat Ashok

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रद )) गई। पर फेवल इस डरसे कि कहीं मैं पहचान नली जाऊ'; 'वह सम्राट्के पास बेठ गई । भाई तो थी वह दूसरोंकी धोखा देनेके ठिये, पर रवय धोखा खा गई। दूसरेको ठगनेके चदछे वह स्वय ठगा गई। चह्द हार गई, लेकिन उसकी चह हार चिजयसे भी अधिक महत्वपूर्ण हुई । और जिस समय प्रम्ि- छाफे पड़यन्त्रपें फंसकर अशोक शेरके पजेंमें चला गया, उस समय तो उसका महिमामय उज्वल सौन्दय्य एकदम प्रगट हो गया। उसने अपने प्राणोंकी तनिक भी चिन्ता न कर सम्नार्‌ की रक्षाके लिये अपने आपको सिंहके पजेमें दे दिया ! अपूच दरश्य है इस टूश्यको लिखकर लेखकने स्वर्ग और नरकको एक स्थानपर एकश्रित कर दिया है। लिस अशोककी जान लेनेके लिये उसकी ( सीतेंठी ) माता तडफड़ा रही है उसीकी रक्षा करनेको उसके कठोर शत्रुकी कन्या अपनी ज्ञान विसज्लेत कर रददी है ! स्वार्थत्याग भी इस ट्रश्यको देखकर सांदू बहाने लग जाता है | विश्वास भी इस टूश्यकों देख- कर गदुगद हो जाता है] पाठकोंको यह स्वर्ग और नरकका डश्य तो स्पष्ट समक्में भा जायगा, पर इन दोनोंके बीचमें जो पक पतली सी म्त्यंछोककी धारा वह रही है, वद बहुत ही अस्पष्ट है । उसी मत्यंठोककी एक असूपष्ट भलकने इसे मानवीय रूप दे रक्‍्ला है नहीं तो यह सरित्र अवश्य स्वरगीय हो जाता। इस स्टर्गोय दश्यमें एक छोटीसी स्वार्धकी भावना नजर है । प्रणयिनीने पूरा नहीं तो कमसे कम आधा इृदय उस समयतक सप्नाट्के मपंण कर दिया था । मस्तिष्क के साथ यहुत समयतक युद्ध करनेक्े पश्चात्‌ अन्तमें दृद्यने विजय प्राप्त कर ठी थी।. उसने सप्नाटूको अपना स्वामी मन छिया था सौर भपने स्वामीकी रक्षाके लिये सती रमणीका




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