कडवी मीठी बाते | Kadavi Mithi Bate

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज्वाला परचूना है | क्यों जीता है, ईश्वर जामे ! पर यह कि वह इस भार से दवा हुआ है, उसके चलने-फिरने, बात करने और रहने--सब तरद से जाहिर है । उसके चेहरे को देखिए | जीवन की छुखित कथा झुर्रियों सें नहीं, खाल की ऐठनों में लिखी है--नैसे मोम के किसी पुवले की झाकृति ताप पाकर निकृत हो गई हों । ज्वाला के मनस्ताप का मैं कुछ-कुछ श्रनुमान कर सकता हूँ। मेरा मन उसकी कर्पना से कभी-कभी मोम की तरह प्रिंघल भी जाता है; लेकिन झूठ क्यों वोलू मैं और लोगों के समान निष्ठुर न सही कायर तो जरूर हूँ। इस करवे में; और कस्बे के इस मोहत्लों में मुकते किरारदार आए. साल भर दोगये, पर मैंते भी तो कभी साइस नहीं किया कि ज्वाला के पास जाऊँ, और उसके सुख-दुख की बात पूछूँ और अजगर सी पड़ी हुईं सोहल्ले की रूढ़ि को फ्लांग जाऊँ | समझता सब कुछ हूँ कि उसके हृदय में बिषाद का सीसाहीन रेगिस्तान फैला होगा | वह मानवी बस्ती में प्रेत की तरह घूमता है--लेकिन मेरे किये कुछ भी तो होता घद्दीं । कई बार सोचा हैं कि उससे बोर्लू--वतलाओं. लेकिन मेरी घमपत्नी ऐसा देपने नहीं देती | उनकी यही एक दलील है--'मांना कि आप ठीक भी सोचते हैं, लेकिन बस्ती भर की बात भँठ योड़े ही हो सकती है | ' आर इम तो परदेशी हैं इस मनहूस के लिये क्यों अलाय-बलाय सिर पर ले ?” यह कहते- कहते च्ण भर के लिये वह काँप उठती है । मैं चुप होकर सो रहता हूँ । मेरी आँख खुलती हैं, जब ज्वाला चरपट मंजरी की एक यही पंक्ति दोहराता हुआ मन्दिर के कुएं से नहीं कर लौटता है--'भज गोविन्दम्‌, भज गोविन्दस, गोविन्दस मल, मूठमते !' कितनी बार, कितनी तरह मैंने इस एक पक्ति को सुना है ! मैंने इसे ज्वाला की खुली हुई श्राबाज में सुना, ठिडुरते हुए करठ के टुरते हुए स्वर [ ४. |




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