राम कुमार वर्मा नाटक रचनावली 2 | Ram Kumar Verma Naatak Rachnawali 2

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Ram Kumar Verma Naatak Rachnawali 2 by कमल किशोर गोयनका - Kamal Kishor Goyankaडॉ. चन्द्रिका प्रसाद शर्मा - Dr. Chandrika Prasad Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सारंग-स्वर / 15 है कि वहुआदम खाँ पर बाण चला सकती है, किन्तु उसकी नैतिक मर्यादा किसी छल को उभरते नहीं देती । नाटक में भवभूति के करुण रस की मान्यता को ही स्वीकार किया गया है और रूपमती का मरण शत्रु के हृदय से भी एक करुण चीत्कार निकलवाने की शक्ति रखता है । बाजबहादुर : बाजबहादुर शक्ति की साधना में कभी सफल नहीं हुआ । एक बार वह महारानी दुर्गावती से भी हार गया था, दूसरी बार वह आदम खाँ की सेना से पराजित होकर भागा । वस्तुत: सुलतान होने के कारण वह हमेशा युद्ध का दम्भ प्रदर्शित करता था जो वह हारकर भी भूल नहीं सका । किन्तु वह इतना भयभीत और शंकाग्रस्त था कि एक सुखे हुए पेड़ को भी शत्रु का सिपाही समझ बैठता था और उससे युद्ध करने की अपेक्षा, स्वयं ही क़रल हो जाने की बात कहता था । यह रूपमत्ती का प्रेम ही था जिसने 'बाज़' को “बहादुर बना दिया था किन्तु रूपमती का आश्रय दूर होने पर 'बाज़' केवल 'लवा' का रूप ले सकता था । वह एक ऐसा पौधा था जिसे सदैव किसी लकड़ी के सहारे की आवश्यकता होती है । आदम खाँ : इसमें सिपहसालार का पुरा व्यक्तित्व है। माण्डवगढ़ जीतने पर तो वह अपने को सुलतान ही कहने लगता है। वह छदमवेशी और नीतिज्ञ भी है । वह छिपकर परिस्थितियों का भेद लेता है और शत्रु को शतरंज के मोहरे की तरह हर चाल में शह देता है। उसे अपनी मर्यादा का बहुत अधिक ध्यान है किन्तु विलास के क्षणों में वह अपने से निम्न श्रेणी वालों को भी अपने पास तक चले आने देता है। उसका सम्भाषण भयभीत करने वाला है किन्तु वहू मुसाहिबों की खुशामद को भी मुस्कराकर सुन लेता है। उसकी प्रत्येक भंगिमा में उसका अभिमान और अहंकार झलकता है । वह अपने को ' किसी प्रकार भी सम्राट अकबर से कम नहीं समझता । दोख़ उमर : रानी रूपमती के गुरु का स्वाभिमान बड़े ऊचे स्तर तक चला गया हैं। जहाँ एक ओर वह. छोटों के लिए वात्सत्यपुर्ण है, वहाँ दुसरी ओर वह शत्रु के प्रति कठोर और निर्भीक भी है । विशेष परिस्थितियों में अपनी विवशता से क्षुब्ध और दुःखी भी हो जाता है । वह वृद्ध है, किन्तु उसकी कड़कती हुई आवाज़ किसी सैनिक की ललकार से कम नहीं है । वह किसी से व्यंग्य और परिहास सुन नहीं सकता, यहाँ तक कि अपनी विवशता और वृद्धावस्था की निबंलता के कारण अपमान सहन न करने पर अपना जीवन ही समाप्त कर देता है । गौण पात्रों में जहाँ विजय सिंह सच्चा स्वामिभक्त राजपूत सरदार है, वहाँ पीर मुहम्मद खाँ और अब्दुला खाँ खुशामदी मुसाहिब हैं। इनमें भी अब्दुल्ला खाँ की खुशामद तो हास्य की सीमा भी स्पशं करने लगती है । स्त्री पात्रों में रेवा, श्याम मंजरी और प्रभाती अपनी स्वासमिनी रूपमती की सेवा करने में निरन्तर प्रयत्नशील हैं । उनमें साहस, निर्भीकता और कर्त्तव्यनिष्ठा येक परिस्थिति में देखी जा सकती है। ः




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