मध्यकालीन कविता | Madhyakalin Kavita

Madhyakalin Kavita by जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव - Jagdish Prasad Shriwastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१५%) नैन खँँजन दुड़ केलि करेहीं। कुच नारंग मधुकर रस लेहीं। | सरवर रूप विमोहा, हिये हिलोरहि लेइ । पाँव छुवै मकु पावों एहि मिस लहरहि देइ । 1६३ | धरी तीर सब कंचुकि सारी । सरवर महँ पैठीं सब बारी | । पाइ नीर जानौं सब वेली । हुलसहिं करहिं काम कै केली | | करिल केस बिसहर विस भरे। लहरँँ लेहि कर्वैल मुख धरे । । नवल बसंत सँवारी करी। होइ प्रगट जानहु रस भरी। | उठी कोंप जस दाख़िं दाखा। भई उनंत पेग कै साखा | | सरिवर नहिं समाइ संसारा। चाँद नहाइ पैठ लेइ तारा | | धनि सो नीर ससि तरई ऊई। अब कित दीठ कमल औ कूईं। । चकई बिछुरि पुकारै, कहाँ मिलौं, हो नाहैं। एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माँह । 1७ । कहा मानसर चाह सो पाई। पारस रूप इहाँ लगि आई। । भा निरमल तिन्ह पायन्ह परसे। पावा रूप रूप के दरसे | | मलय समीर बास तन आई । भा सीतल गै तपनि बुझाई | | न जनौं कौन पौन लेइ आवा। पुन्य- दसा भै पाप गँवावा । | ततखन हार बेगि उतिराना। पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना | | विगसा कुमुद देखि ससि रेखा। भै तहँँ ओप जहाँ जोइ देखा। ! पावा रूप रूप जस चहा। ससि - मुख जनु दखन होइ रहा। | नयन जो देखा कँवल भा। निरमल नीर समीर | हँसत जो देख, हंस भा। दसन जोति नग हीर। 1 ८। | नख शिख खंड का सिंगार ओहि बरनौं, राजा। ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा। | दर प्रथम सीस कस्तूरी केसा। बलि बासुकि, का और नरेसा | | भौर केस, वह मालति रानी । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी । । बेनी छोरि झार जौं बारा। सरम पतार होइ अँधियारा। | कोंवर कुटिल केस नग कारे। लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे | | बेधो जनौं मलयगिरि बासा। सीस चढ़े लोटहिं चहूँ पासा । । घुँघुरवार अलकैं विस भरी। सँकरै पेम चहैं गिउ परी । ।




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