संस्कृत - शब्दार्थ - कौस्तुभ भाग - ३ | Sanskrit Shabdarth Kaustubh Bhag - 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की भी: कं संस्कत-शब्दाथ-कोस्तुभ ञ् झ्ंश झ्--(पुर) [९ बिवुन-ड] चिष्णु । छिव । ब्रह्मा । | दर: (श्ादर का विरोवी ग्रर्थात तिरस्कार या वायु । वश्वानर । विश्व । अमृत । देवनागरी श्र संस्कृत-परिवार की श्रन्य वर्णमालाझओं का पहला अक्षर और स्वरव्ण । (इसका उच्चारण-स्थान कंठ है । इसके १८ भेद होते हैं । प्रथम--ह्लस्व, दीघं और प्लूत । तढुप- यंन्त--ह्लस्व-उदात्त, ल्लस्व-अनुदात्त, ह्लस्व- स्वरित, दीघं-उदात्त, दीघं-झ्ननुदात्त, दीघं- स्वरित, प्लुत-उदात्त, प्लुत-घ्रनुदात्त, प्लुत- स्वरित । ये € प्रकार हुए । फिर श्रनुनासिक श्रौर ग्रननुनासिक भेद से--इन € के दुगुने €>६ रन १५ भेद हुए ।) (ग्रव्य०) “सर अक्षर निषघधाथेक 'नजा' का प्रतिनिधि है । स्वर से आरंभ होने वाले दाब्दों के पहले आ्राने पर इसका रूप “श्रन' हो जाता है - और व्यज्जन के पहले आने पर 'भ्र' ही रहता है ।नडा--अके अथे ६ हैं :--तत्सादृश्यमभावरच, तदन्यत्वं तदल्पता । अप्रादस्त्य॑ विरोधरच, नडार्था: घट प्रकीोतिता: ॥। (उदाहरण क्रम से) सादुश्य-- भ्रब्नाह्मण: (यज्ञोपवीत आदि होने से) [ब्राह्मण के सदृश अर्थात क्षत्रिय आदि] अभाव ।--श्रपापम्‌ (पापाभाव) । मिन्नता। उअघट: (घट से भिन्न पट झादि) । अल्पता “अनुदरा (पतली या छोटी कमर वाली ) । अप्रादस्त्य भाव--झ्रकाल: . (श्रप्रस्त अर्थात्‌ ग्रशुभ या झ्रनुचित काल) । विरोध--ना- अपमान ) । अ्रऋणिन--(वि०) [नास्ति ऋणं यस्य न० ब०] जिसबे किसी से ऋण न लिया हो या जिसके ऊपर किसी का ऋण न हो, बे-क्ज (यहाँ 'ऋ' को व्यज्जन मानने के कारण अनु नहीं हुआ । स्वर मानने पर 'अनणी' प्रयोग होता है । ) झशु--चुरा० पर० सक० विभाजित करना, बाँटना, भाग करके बाँटना। पुथक्‌ करना | अंशयति, अंशापयति । अ्रंज्ज--(पुं०) [९ पंसुन-अच] भाग, हिस्सा बाँट । भाज्य । झड़ । भिन्न की लकीर के ऊपर की संख्या । चौथा भाग । कला। सोलहवाँ हिस्सा । वृत्त की परिधि का ३६० वाँ हिस्सा । जिसे इकाई मान कर कोण या चाप का परिमाण बतलाया जाता है। कंघा। बारह झादित्यों में से एक ।--श्रंश (श्रंशषांश) (पुं० ; प्रंशावतार, एक हिस्से का हिस्सा ।-- अंदि (श्रंशषांशि) (क्रि० थि०) भागा, हिस्सेवार ।--श्रवतरण:. (श्रं्यावतरण)-- (न० दे० ) “अंशावतार'ं, किसी भाग का उद्धरण, महाभारत के आ्रादि पं के ६४-- ६७ अघ्यायों का. नाम ।--श्रवतार (भ्रंशा- बतार )--(पूं०) वह अवतार जिसमें ईश्वर या देव-विज्ञेष की पुरी कला अ्रवर्तीणं न हुई हो ।




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