संस्कृत - शब्दार्थ - कौस्तुभ भाग - ३ | Sanskrit Shabdarth Kaustubh Bhag - 3
श्रेणी : भाषा / Language
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
63.92 MB
कुल पष्ठ :
1406
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)की भी: कं
संस्कत-शब्दाथ-कोस्तुभ
ञ्
झ्ंश
झ्--(पुर) [९ बिवुन-ड] चिष्णु । छिव । ब्रह्मा । | दर: (श्ादर का विरोवी ग्रर्थात तिरस्कार या
वायु । वश्वानर । विश्व । अमृत । देवनागरी
श्र संस्कृत-परिवार की श्रन्य वर्णमालाझओं
का पहला अक्षर और स्वरव्ण । (इसका
उच्चारण-स्थान कंठ है । इसके १८ भेद होते
हैं । प्रथम--ह्लस्व, दीघं और प्लूत । तढुप-
यंन्त--ह्लस्व-उदात्त, ल्लस्व-अनुदात्त, ह्लस्व-
स्वरित, दीघं-उदात्त, दीघं-झ्ननुदात्त, दीघं-
स्वरित, प्लुत-उदात्त, प्लुत-घ्रनुदात्त, प्लुत-
स्वरित । ये € प्रकार हुए । फिर श्रनुनासिक
श्रौर ग्रननुनासिक भेद से--इन € के दुगुने
€>६ रन १५ भेद हुए ।) (ग्रव्य०) “सर अक्षर
निषघधाथेक 'नजा' का प्रतिनिधि है । स्वर से
आरंभ होने वाले दाब्दों के पहले आ्राने पर
इसका रूप “श्रन' हो जाता है - और व्यज्जन के
पहले आने पर 'भ्र' ही रहता है ।नडा--अके
अथे ६ हैं :--तत्सादृश्यमभावरच, तदन्यत्वं
तदल्पता । अप्रादस्त्य॑ विरोधरच, नडार्था: घट
प्रकीोतिता: ॥। (उदाहरण क्रम से) सादुश्य--
भ्रब्नाह्मण: (यज्ञोपवीत आदि होने से)
[ब्राह्मण के सदृश अर्थात क्षत्रिय आदि]
अभाव ।--श्रपापम् (पापाभाव) । मिन्नता।
उअघट: (घट से भिन्न पट झादि) । अल्पता
“अनुदरा (पतली या छोटी कमर वाली ) ।
अप्रादस्त्य भाव--झ्रकाल: . (श्रप्रस्त अर्थात्
ग्रशुभ या झ्रनुचित काल) । विरोध--ना-
अपमान ) ।
अ्रऋणिन--(वि०) [नास्ति ऋणं यस्य न०
ब०] जिसबे किसी से ऋण न लिया हो या
जिसके ऊपर किसी का ऋण न हो, बे-क्ज
(यहाँ 'ऋ' को व्यज्जन मानने के कारण
अनु नहीं हुआ । स्वर मानने पर 'अनणी'
प्रयोग होता है । )
झशु--चुरा० पर० सक० विभाजित करना,
बाँटना, भाग करके बाँटना। पुथक् करना |
अंशयति, अंशापयति ।
अ्रंज्ज--(पुं०) [९ पंसुन-अच] भाग, हिस्सा
बाँट । भाज्य । झड़ । भिन्न की लकीर के
ऊपर की संख्या । चौथा भाग । कला।
सोलहवाँ हिस्सा । वृत्त की परिधि का ३६०
वाँ हिस्सा । जिसे इकाई मान कर कोण या
चाप का परिमाण बतलाया जाता है। कंघा।
बारह झादित्यों में से एक ।--श्रंश (श्रंशषांश)
(पुं० ; प्रंशावतार, एक हिस्से का हिस्सा ।--
अंदि (श्रंशषांशि) (क्रि० थि०) भागा,
हिस्सेवार ।--श्रवतरण:. (श्रं्यावतरण)--
(न० दे० ) “अंशावतार'ं, किसी भाग का
उद्धरण, महाभारत के आ्रादि पं के ६४--
६७ अघ्यायों का. नाम ।--श्रवतार (भ्रंशा-
बतार )--(पूं०) वह अवतार जिसमें ईश्वर या
देव-विज्ञेष की पुरी कला अ्रवर्तीणं न हुई हो ।
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