कविता कलाप | Kavita Kalap

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कविता-कलाप | जया अकव बणा न ना ९११-परशुरास । (१) शिखा सूत्र के संगशस्र का मेल विलोको ; निपट चविप्र घर-बढ़े न जानो सरठ ट्विजो को । पूरव-काल में बेद-मंत्र थे कड़खे रन के , सेना-नायक. द्युर, कुशल द्विज, ऋषि, सुनि वन के ॥ (९) लख सरोप स्वाधीन साव इस मुख-मडल का मिलता हे सब पता पूव-पुरुषो के बल का | घझात्र तेज यो ब्रह्म-तेज में यहाँ थरा है चाति-चीर-रसख-कटक सखग मानो उतरा है ॥ च मै तनों, कटाक्ष, की म निद्चय जो का इस सब को सवाद खुनाते है यदद नीका-- गद्दो आप बल, बुद्धि, तेज, साहस, प्रसुताई चल जीवन के लिए करो मत आद्ा पराई ॥ (४) पर सदसा यह रूप देख होता है विस्मय-- र्य-लोग क्या एक समय थे ऐसे नि्मय ! करा इस सब जो आज बने हैं निबठ कामों रदते थे स्वाधीन समर में होकर नामी ॥ (५) जो दो, यह सब परशुराम ने कर दिखलाया ; घच्चिय-वुद दाग रक्त नदी सा युद्ध बद्दाया 1 नहीं एक दो बार, बार इक्कतीस समर में सोये धधिय-दीर वारोडो काल-उद्र में ॥ (६) अहंबार उद्दड निरकुश क्तिय-गन दा लगा न सुनि को भला, सोच मे माथा ठनका 1 दिव्श रश्ष्य ने युद्ध रक्षकों से तब ठ ना भाला से भिड भूल गया भाला निज घाना ॥ (७) दिचा-मय घल देख निरा बल पल में भागा समर-सेज एर सोय हाय ! फिर व भी न जागा | हो भी सनि ने रास्प-लोभ सें तजी न चेदो थार बार जय-नूमि सहज दिय्रो को दे दी ॥ ही (८) लिये एक में शास्त्र, अन्य कर में कुश पानी, जीत-दान के लिए रहे तत्पर सुनि ज्ञानी । पृथ्वी कंपित हुई नाम से परडुराम के , सहमे सदा सभीत निवासी देव-घाम के ॥ (९) शली नहीं है किसी काल में विप्र-अवक्षा , द्विज सूद हो भकट कुपित करें है घाप-प्रतिज्ञा । जो होते ये कहीं सबल सब, तो पल-भर में लाते सब संसार खींच कर एक नगर मे ॥ ( १० ) हुआ समय का फेर हाय | पलटी परिपाटी , जो थे कभी सुमेर आज हैं केवल माटी । क्षत्रिय-कुछ निर्वेश सहज में करनेहारे , परझुराम मुनि निरे राम बालक से हारे ॥ २२णअहल्या | (१) काम-कामिनी सी छवि-राशी , उपबन की लहदलही लता-सी । गोतम-मुनि की यह नारी है; पति को प्राणों से प्यारी है ॥ (२) रहती है यह मुनि-संग चन में; प्रेस गये की माती. मन में । पति को प्रबल प्रीति के चल पर; कानन इस्व नगर है. सुल्टर ॥ (६) सनि की दिव्य देह नहीं चातती गत पर्व त्ैै घ्रााए” जनक गा डर जानमाया। की इस महल है. री लि न दुबारा जम रह स्य स्माय एशन्ड है




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