कविता कलाप | Kavita Kalap
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.78 MB
कुल पष्ठ :
250
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कविता-कलाप |
जया अकव बणा न ना
९११-परशुरास ।
(१)
शिखा सूत्र के संगशस्र का मेल विलोको ;
निपट चविप्र घर-बढ़े न जानो सरठ ट्विजो को ।
पूरव-काल में बेद-मंत्र थे कड़खे रन के ,
सेना-नायक. द्युर, कुशल द्विज, ऋषि, सुनि वन के ॥
(९)
लख सरोप स्वाधीन साव इस मुख-मडल का
मिलता हे सब पता पूव-पुरुषो के बल का |
घझात्र तेज यो ब्रह्म-तेज में यहाँ थरा है
चाति-चीर-रसख-कटक सखग मानो उतरा है ॥
च
मै तनों, कटाक्ष, की म निद्चय जो का
इस सब को सवाद खुनाते है यदद नीका--
गद्दो आप बल, बुद्धि, तेज, साहस, प्रसुताई
चल जीवन के लिए करो मत आद्ा पराई ॥
(४)
पर सदसा यह रूप देख होता है विस्मय--
र्य-लोग क्या एक समय थे ऐसे नि्मय !
करा इस सब जो आज बने हैं निबठ कामों
रदते थे स्वाधीन समर में होकर नामी ॥
(५)
जो दो, यह सब परशुराम ने कर दिखलाया ;
घच्चिय-वुद दाग रक्त नदी सा युद्ध बद्दाया 1
नहीं एक दो बार, बार इक्कतीस समर में
सोये धधिय-दीर वारोडो काल-उद्र में ॥
(६)
अहंबार उद्दड निरकुश क्तिय-गन दा
लगा न सुनि को भला, सोच मे माथा ठनका 1
दिव्श रश्ष्य ने युद्ध रक्षकों से तब ठ ना
भाला से भिड भूल गया भाला निज घाना ॥
(७)
दिचा-मय घल देख निरा बल पल में भागा
समर-सेज एर सोय हाय ! फिर व भी न जागा |
हो भी सनि ने रास्प-लोभ सें तजी न चेदो
थार बार जय-नूमि सहज दिय्रो को दे दी ॥
ही
(८)
लिये एक में शास्त्र, अन्य कर में कुश पानी,
जीत-दान के लिए रहे तत्पर सुनि ज्ञानी ।
पृथ्वी कंपित हुई नाम से परडुराम के ,
सहमे सदा सभीत निवासी देव-घाम के ॥
(९)
शली नहीं है किसी काल में विप्र-अवक्षा ,
द्विज सूद हो भकट कुपित करें है घाप-प्रतिज्ञा ।
जो होते ये कहीं सबल सब, तो पल-भर में
लाते सब संसार खींच कर एक नगर मे ॥
( १० )
हुआ समय का फेर हाय | पलटी परिपाटी ,
जो थे कभी सुमेर आज हैं केवल माटी ।
क्षत्रिय-कुछ निर्वेश सहज में करनेहारे
, परझुराम मुनि निरे राम बालक से हारे ॥
२२णअहल्या |
(१)
काम-कामिनी सी छवि-राशी ,
उपबन की लहदलही लता-सी ।
गोतम-मुनि की यह नारी है;
पति को प्राणों से प्यारी है ॥
(२)
रहती है यह मुनि-संग चन में;
प्रेस गये की माती. मन में ।
पति को प्रबल प्रीति के चल पर;
कानन इस्व नगर है. सुल्टर ॥
(६)
सनि की दिव्य देह
नहीं चातती गत
पर्व
त्ैै
घ्रााए” जनक
गा डर
जानमाया।
की इस महल है.
री लि
न दुबारा जम
रह स्य स्माय एशन्ड है
User Reviews
No Reviews | Add Yours...