तांत्रिक बोध साधना और साहित्य | Tantrik Bodh Sadhana Aur Sahitya

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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रे) टीका में इस योग के विवरण में छः श्रंगों का नास निर्देश तथा क्रम दिया गाया है, जैसे--प्रत्या्वार; ध्यान, प्राणायाम, घारणा, श्रनुस्मृति श्ौर समाधि | यह कहने की वात नहीं है कि योगी का चरम लक्ष्य है, निरावरण प्रकाश की प्राप्ति । किसी प्रकार का श्यावरण यदि रद्द जाय तो समभकना चाहिए कि श्रतिम लक्ष्य की उपलब्धि नहीं हुई । परंतु तान्िक श्राचाय वर्ग का सिद्धात यदद है फि सभी प्रकार के श्रावरण से मुक्त दोने के लिये परभामंडल फा उदय शोर योगी का उसमें प्रवेश श्रपेद्षित है । परंठु प्रमामहल में प्रवेश सासान्य साधक के लिये तो दूर की बात है ही, श्रति उच्च स्तर के योगियों के लिये भी यह साष्य नहीं है । योगमायं में लच तक वज्सत्व नामक श्रवस्था का उदय न हो सब तक प्रभामंडल में प्रवेश कदापि नहीं हो सफता । परंतु पहले वोधघिसच्वलाम न. होने पर वं्सत्व श्रवस्था की प्रातति श्रसमव है | चोधिसत्त्व होने के लिये पाँच श्रमिज्ञार्थों का उदय होना चाहिए । पड्भिज्ञ बुझ का. नामातर दे । परंठु श्वमिजञापचक वोधिसत््त का लक्षण है। इन श्मिज्ञाध्यों का श्राविभाव तब तक नहीं दो सकता जब तक सचसिद्धि: न हो । इसीलिये तात्रिक योगी. सबसे पहले मंत्रसिद्धि के लिये उद्यम फरते हैं । प्रत्याह्वार नामक पहले योगाग के द्वारा मंत्रपिद्धि होती है । श्रनतर ध्यान से श्रभिज्ञा्ं का उदय होता है | प्राणायाम से बोधिसत््च भाव तथा घारणा से वज्सत्वभूमि की प्राति होती है। श्रनुस्पृति का फल है प्रमामढल में प्रवेश तथा पए्ठ श्रय समाधि का फल है निखिल श्रावरर्णों का चय या बुद्धत्व । निंदु को उदूचुद्ध फर निर्माणचक्र से उष्णीपकमल तक ले लाना पढता है | बिंदु का उद्वोघ श्र कुंडलिनी शक्ति का जागरण वस्तुतः एक ही व्यापार है । तान्रिकों की परिभाषा में इस जागरण को निर्माणुचक्र में स्वशक्ति सचाडाली का जागरण कहा जाता है । लिस क्षण में चाडाली का नागरणु होता है, उसी छण में मस्तकस्य चद्बिंदु से श्रसरतक्षरण होना श्रारंम होता है । जब प्रज्ञा भ्रयवा चित्कमल श्रौर रुदजानंद का उपाय, ये, दोनों परस्पर




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