दर्पण का व्यक्ति | Darpan Ka Vyakti

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Darpan Ka Vyakti by विष्णु प्रभाकर - Vishnu Prabhakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आज चालीस चर्प की इस उम्र में मुन्े यह पागलपन न सूझता मेरा सिर फटा जा रहा हैं। मेरी घमनियों में लह वड़ी तेजी से दौड़ रहा है। मेरे जोड़ों में बड़े जोर से पीड़ा हो रही है। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है जैसे तीन वर्पों का यह संचित ज्वर मुन्ञपर आक्र- मण करने आ रहा है उस आक्रमण से पहले ही मैं तुमसे कुछ वातें तो कर लूं । मेरे इस अधिकार को कोई चुनौती नहीं दे सकता । तुम्हें तो अच्छी तरह याद होगा कि तीस वर्ष पहले तुम दूल्हा वनकर मेरी देहरी पर आए थे । कितनी अवोध थी मैं गुड़िया-सी नये-नये वस्त्रों में सजी चांदी के रुपहले गहनों से लदी और मेहंदी में रंगी मैं अपने उल्लास को मन में दवाएं एक कोने में चिपकी हुई मन और शरीर दोनों को उड़ाकर ले जाना चाहती थी । पर लाज की अल्हुड़ दीवार मां-वाप का शासन ये सब मुझे भीतर धकेल रहे थे । मेरी सखी- सहेलियां वहन हमजोलियां सब मुझे तरह-तरह से हंसा-रुला रही थीं। मुझे वहुत अच्छी तरह याद है कि तव मेरे मन में कोई साफ तस्वीर नही थी । मैं जानती भी न थी कि क्या होने वाला है । एक तमाशा था जिसको मै देख भी रही थी और उसका केन्द्र भी बनी हुई थी । एक वात मैं आज भी नहीं भूल पा रही हूं । आयु में कई वर्ष बड़ी मेरी एक सखी ने मुझसे आकर वड़े उल्लास से कहा रामो तेरा वन्‍ना तो वड़ा सजीला हैं। रंग जैसे गोरा भभूका । भाँखें धप- घप गोल-गोल भरा हुआ मुंह । खूब हुष्ट-पुष्ट । जी करता है कि मैं उससे विवाह कर ल॑ । सच मानना तव मेरे मन में ऐसा उठा था कि उस मुंहजली का गला देवा दूं । कलमुंही मेरे धन पर डाका डालना चाहती है कैसा है यह मेरा-तेरा ? तुम्हें देखा न सुना वस मन में अपनेपन का भाव पैदा हो गया । और ऐसा पैदा हुआ कि आज तीस वर्ष वाद 0 कर ् दर्पण का व्यक्ति ः श्३




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