योग शास्त्र (जैन दर्शन) | Yoga Shastar (jain Darshan)

Book Image : योग शास्त्र (जैन दर्शन)  - Yoga Shastar (jain Darshan)

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( <ब्.) मूल था । महावीर ने सोचा कि वात क्या है ? क्या कारण है कि सभी वाद एक दूसरे के विरोधी हैं ? उन्हें ऐसा मालूम पड़ा कि इस विरोध के मूल में मिध्या श्राग्रह है । इसी श्राग्रह को उन्होंने ऐकान्तिक श्राप्ह कहा । उन्होंने वस्तुतत्त्व को ध्यान से देखा । उन्हें मालूम हु्रा कि वस्तु में तो वहुत से धर्म हैं; फिर क्या कारण है कि कोई किसी एक घमं को ही स्वीकार करता है तो कोई किसी दूसरे धर्म को ही यथार्थ मानता है ? हृष्टि की संकुचितता के कारण ऐसा होता है, यह हल निकला । उन्होंने कहा कि दार्दनिक हष्टि संकुचित न होकर विद्याल होनी चाहिये । जितने भी धमं वस्तु में प्रतिभासित होते हों, . सब का समावेदया उस हष्टि में होना चाहिये । यह ठीक है कि हमारा हष्टि- कोण किसी समय किसी एक धर्म पर विशज्षेष भार देता है, किसी समय किसी दूसरे धर्म पर । इतना होते हुए भी, थह नहीं कहा जा सकता कि वस्तु में श्रमुक धर्म है, श्रौर कोई धर्म नहीं । वस्तु का पु्णं विद्लेपण करने पर यह प्रतीत होगा कि वास्तव में हम जिन धर्मों का निपेघ करना चाहते हैं वे सारे धर्म वस्तु में विद्यमान हैं। इसी दृष्टि को सामने रखते हुए उन्होंने वस्तु को श्रनम्त धर्मात्मक कहा । वस्तु स्वभाव से ही ऐसी है कि उसका श्रनेक हृष्टियों से विचार किया जा सकता है । इसी हष्टि का नाम श्रनेकान्तवाद है। किसी एक घमं का प्रतिपादन “स्यात्‌ (किसी एक श्रपेक्षा से या किसी एक हृष्टि से) दाव्द से होता है ग्रतः भ्रनेकान्तवाद को स्याद्ाद भी कहते हैं। दादमिक क्षेत्र में महावीर की यह वहुत बड़ी देन है । इससे उनकी उदारता एवं विशालता प्रकट होती है । यह कहना ठीक नहीं कि अनेकान्तवाद एकान्तवादों का सम- न्वय मात्र है । श्रनेकान्तवाद एक विलक्षण वाद है । इसकी जाति एकान्तवाद से भिन्न है । एकान्तवादों का समन्वय हो ही नहीं सकता । समन्वय तो सापेक्ष- वादों का हो सकता है । श्रनेकान्तवाद सापेक्षवादों का समन्वय अवश्य है । सापेक्षवाद झ्रनेकान्तवाद से श्रभिन्न हैं । श्रनेक एकान्त हष्टियों को जोड़ने मात्र से श्रनेकान्त हप्टि नहीं वन सकती । श्रनेकान्त हप्टि एक विज्ञाल एवं स्वतन्त्र दृष्टि है,जिसमें भ्रनेक सापेक्ष हृप्टियां हैं । जेनदर्शन की विशेषता : महावीर ने जिस हष्टि को प्रचार किया उस हष्टि की विशेषतात्रों पर प्रकाश डालना झावइ्यक है । जैनदर्दान की मुख्य विशेषता स्याद्वाद है, यह हमने देखा । महावीर ने वस्तु का पूर्ण स्वरूप हमारे सामने रखने की पूरी कोदिश की श्रौर उसी का परिगाम स्यादाद के रूप




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now