हिंदी - साहित्य का गद्य - कला | Hindi Sahitya Ka Gaddh Kaal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रै० रिपिसखांसंगमन राधिकारमण संवकवरदायक गोपीगोप छकुल्- सखदायक गोपालवालम डलीनायक अघघायक गावधनधघारणण महेन्द्रमोहापहरण दोनजनसब्जनसरण न्रद्दबिस्मयविस्तरण पर- हम जगरजन्ममरणदुःखसंहरण अधमोद्धरण विश्वंभरण निमंल- जसकलिमलविनासन कमलनयन चरणकमलज लन्रिलोकी पावन श्री बृन्दावनविदरण जय जय । यह वाक्य हमें कादस्बरी-कार बाण-भट्ट की याद दिला देता है । इस प्रकार का गद्य कद्दीं की बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती । देव जी के मत से शायद आदश गद्य का नमूना यही था । अब इसी प्रकार श्रीपति और दास जी के रीति-श्रथों में भी कहीं-कहीं श्रजभाषा गद्य का प्रयोग किया गया है परंतु उनकी भाषा साधारण बोलचाल की न्रजभाषा मालूम होती है । इन रीति-काल के कवियों के अतिरिक्त इसी समय के झास- पास कुछ टोकाकारों का गद्य भी सिलता है जिनमें तीन अधिक प्रसिद्ध हैं-सुरति मिश्र जानकीप्रसादू तथा किशोरदास | सुरतिमिश्र का रचना-काल सं० १७६७ के आसपास है । इन्होंने कुछ प्रंथों पर टीकाओओं के अतिरिक्त श्रजभाषा गद्य में चेताल पंचोसी नाम का एक स्वतंत्र प्रंथ भी लिखा है । इन टीकाओं के गद्य को ध्यान से देखने से ज्ञात होता है कि इन्होंने न्रजभाषा ही में श्र थ की व्याख्या करने की चेष्टा की थी परतु उस व्याख्या या. टीका की भाषा इतनी दुरूद्द होती थी कि मूल प्र थ चाहे झाप समक भी ले पर उनकी टीका का समझना




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