मानव - धर्म | Manav - Dharm

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Manav - Dharm by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ला दूसरा धर्म है क्षमा । अपना. अपकार करनेवालेसे बदला लेनेकी पूरी सामध्य रहते हुए भी बदला न लेकर उस अपकारको प्रसनताके साथ सहन कर लेना क्षमा कहलाता है । सत्यपि सामथ्य अपकारसदनं धमा | मनुष्य मायासे मोहित हैं मोहके कारण वह भोगोंमें छुख समझकर उनकी प्राप्तिके लिये परिणाम न सोचकर दूसरेका अनिषट कर बैठता है । मनसे साधारण प्रतिकूल घटनामें ही मनुष्य अपना अनिष्ट मान लेता है और उसी अवस्थामें उसे क्रोध आता है । आगे चढकर इसी क्रोधके कई रूप वन जाते हैं जिन्हें देष वैर प्रतिहिंसा और हिंसा आदि नामोंसे पुकारा जाता है। जिस समय किसीके प्रति मनमें द्वेप उत्पन होता है उसी समयसे अमज्ञछका प्रारम्भ हो जाता है। किसीको अपना दातु समझकर उससे बदंछा लेनेकी प्रदृत्तिसे न केवल उंस वैरीका ही अनिष्ट होता है वर अपना भी महान्‌ अनिप्ट होता है दिन रात हृदय जछा करता है । इतनेमें ही इस अमझंठकी समाप्ति नहीं दो जाती । दोनों ओरसे . द्ेष और प्रतििंसीकी पुष्टि होते होते परस्पर विविध प्रकारसे संघरषण होने छागता है और उसंसे एक ऐंसा प्रबंछ दावानल जल उठता है जो बंढ़ी-बड़ी जातियों और राष्ट्रोंको भस्म कर डांठती है । स्जगंत्‌के बड़े-बड़े युद्ध आरंस्मम दो वार मनुष्योंके परस्पर मेंनों-




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