रघुवंशसार | Raghuvansh Sar

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Raghuvansh Sar  by कालिदास - Kalidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रखुबंशत्वार।' «(१७३ . हैं। यह सुरषेनु सुरमिके समान है। केवढ शिवजीकीं रुपासे तुमने इसपर आक्रमण कर सका है । इस धेनुके बदढ़े छक्ष ठक्ष दुधारू गोय देनेसे भी महर्षिका कोप शान्त न होंगा। हे मुगेन्द्र सजनाकी. क्षेणकाठ वाताठाप करनेते ही मित्रता हो जाती है। भतेएव पुम्दं इस बन्पुकी प्रार्थनापरे सहमत होना पढ़ेगा। .. '* -हिंह राजाकी यह बांत सुनकर खुश हुआ और उनकी . प्रांथना मांन छी । इतनेमें रांजाका हाथ जो जकड़ेसा गया था. खुंठ गंपा । उन्होंने अब शंख्र' छोड़कर हिंहके आगे नीचे : मह करके 'मांसपिंडकी भांति अपनी देंह उसे शॉप दौ। किन्त _ सिंहका प्रचेण्ट-आधात सोचकेर तिरठी दृष्टसे कभी कभी . ऊंपरकी और देखने ठगे । इस संमय स्वगंसे विद्यापरंगण : 'राजाके मस्तकपर पृष्पपृष्टि करने छंगे । सुरमितनया नन्दिनी ._ रॉजाको संम्बोधन करके बोछी “ वह ! उढो । राजा उठकर कया. देखंते हैं कि वहां सिंह नहीं है । केवठ नन्दिनी खड़ी हुईहै। भंथ और विस्मयते घिरेहुंए राजा चित्रकी . भांति खड़े रहे।उनकी यह दशा देखें न॑न्दिनी बोठीः-वत्संमिंयकी त्यागो, मैंने तुम्हारी मक्तिकी परीक्षा करनेके छिये माया विस्तार _ की थी । सिंह जो मुझपेर' आक्रमण करना चाहता था पेह ' बनावटी सिंह था.। महापिकी रुंपासे हमे सिंह कया यम भी कुछ नहीं कर सकतें । तुम्हारी गुरमक्ति और गोंमक्तिकी




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