वेदान्त दर्शन | Vedant Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ड# भापषांजुदाद-सड्ति ( श५ ) की जीचशब्द्से नहीं कहा जासकता, क्पोंफि-में इस मद्दान, परमात्माकों 'झादित्यकी समान उ्योतिमथ,तमसो नाश कर, घ्प्रपाकत दिव्य शरीर घाला जानता हूँ, इत्यादि, पुरूप- सच्तमें सनके 'अपाकत शरीरका चणेन दे ॥ २० ॥ मदबव्यपदेशाब्चान्य।ः ॥ २३ थह घात 'झवश्य दी स्वीकार करनी पड़ेगी कि-छंत- थीसी परमात्मा घादित्य आदि [शरीरोंके अस्सिमनी जीचोंसे झन्प है, “जो 'झादित्यमें स्थित दोकर सी आदित्य से छान्थ हैं झौर जिनको छादित्य नहीं जानता 'झादित्प जिनका शरीर है, जो शादित्यके भीतर -स्थित - दोकर ादित्पको परणा करते हैं,घद्दी झान्तयासी परमात्मा हैं चद हो अग्त हैं, इत्यादि बूददारर्पकव्ती स्मुतिमें चिज्ता- नात्मासे' 'झन्तयामी परमात्साका भेद पतीत . होता है चर “छादित्यके 'सन्तचेती परसात्सा है इत्यादि स्तियों के साथ समानता भी घतीत छोती दे,इससे सिद्ध छुआ कि -इसकारणमें परमात्माका ही उपदेश -कियागया छे२१ अआकाशस्तल्िंगात्‌॥ र९ ॥ किसी समय राजा जेवजिसे एक ज्ञाह्म्णने पुश्न किया था, फि-एयिवी झादि लोकॉका धार स्या है, जाने उत्तर दिया कि -झाकाश दही सथका साधार दे, | झाकाशसे हो सबकी उत्पत्ति हुई है छर 'छाकाश ही स्यक्ते पूलयका स्थान है । इस चचनसे ._ सन्देद्द होता है क्-पदाँ आकाश शब्दसे ऋूताकांश लिया जायगा या परन्ना ? झाकाश शब्द भ्ताकाशका चाचंक हीं पसिद्ध है, उसमेंसे ही वायु 'मादिके कमसे सकलग्द्त स्वुष्टिकी विवि वी दि वी व. बी वी




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