हिंदी के निर्माता भाग 1 | Hindi Ke Nirmata Vol-1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ हर नाम सुख का मूल है, आवद का फल-फूल हूं । दो-सिंधु का यह कूठ है, गोविंद भज, गोबिंद भज ॥ हर नाम रस जिसने पिया, वह कल्प-कत्पातर जिया । ब्राह्मण कि वह चाडाल हो, हर नाम मे खुशहाल हो। दौलत से मालामाल हो, गोधिद भज, गोधिद भज॥ द श्र शरद बस, कुन 'निसार' ई गुफ्तगू-दर फारसी-गों बेह अजू । बायद-न मूदन जिक्रेऊ, हर नाम गो-हरनाम गो ॥ मुद्ी जी भाषा' के प्रेमी थे । और उन्होने जो भाषा लिखी है वह सस्कृतमिश्रित ऊँचे दरनजे की भाषा है । और उसी भाषा में अपना 'सुखसागर' और 'गीता' लिखी है । उन्हे उस साधु-भाषा का हिंद-समाज से, उर्दू के प्रवेश के कारण, उठ जाने का भारी दुख था । उन्होंने लिखा है:-- “रस्मो-रिवाज भाखा का दुनियाँ से उठ गया ॥” साराश यह कि मुशी जी ने हिंदुओ की शिष्ट वोल-चाल की भाषा में ही अपने भाव व्यक्त किए है । उर्दू से भाषा नहीं ली । इनकी क्रियाओं और शब्दों के स्वरूप स्पष्ट बताते हूं कि उर्दू से सर्वथा पृथक खड़ी बोली मे ही उन्होने अपनी पुस्तक लिखी है । उन्ही की भाषा का. बाइबिल के अनुवादकों ने अनुसरण किया है। स्वय केरे साहब ने बाइबिल का हिदी- अनुवाद “नये धर्म-नियम' के नाम से सबत्‌ १८६६ में कराया, फिर समग्र ईसाई-पुस्तको का भी भाषानुवाद सबत्‌ १८८५ में समाप्त हुमा और इन सबमें भाषा मुशी सदासुख राय की ही रक्खी गई । इनमें उर्दूपन को स्थान नहीं दिया गया । मुशी जी की भाषा इस तरह हिदी-गद्य के विकास-काल में आदशें रूप से स्वीकार की गई।




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