दर्शनानंद-ग्रंथ संग्रह | Darshnanand Granth Sangrah

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Darshnanand Granth Sangrah by दर्शनानंद - Darshananand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१) . सं 'ज्ञात.हैं इन शक्तियों के समूंह को प्रकृति के नीम है. एकारते हैं-झार जितनी इच्छांयें हैं वे सब उत्प न्र.द्दोकर कष्ट झा कारण. इगोरजद -संब इसी संघात का कारण है मत्येक दुःख का कारण अछि है परे..यदि ' विचार किया जावे कि. हम जाता होते हुए भी इस; अज्ञात संघात केसे रद क्यों. हो जाते हैं इसका उत्तर यह है कि हमारा ज्ञान निवंस है; और :संघाते मिचन २ प्रकार की देशाओं में इृष्टिगोचंर 'होता है, यथपि हमने .:इस :को मम किसी: दशा में अस्वीकार भी क्रिया हो परन्तु रतन दशा में शउसके परचात 'हममें फिर 'उसकी इच्छा उत्पन्न हो जाती है और इस .मकार-हम सदैव झ्रपनी.ज्ञांन शक्ति को दिलमिल दशा में देखते - हैं. जिससे “सेव हमको कष्ट होता है यथा, एक मनुष्य ने :उत्तप - फल ' खाया.जो -उद्र-में जोकर पुरीप,-शूभ, रुिर, झस्थि , मौस मज्जा,वीय इत्यादि -की मिस्र दशाओं में परिवर्तन हो ग़या हमें इन वस्तुओं से पूर्ण: घूणा होगई- परन्तु जब यह वेस्तुमें पुनः पूवियो- के नीचे - से दूसरे फल के रूप में उत्पन्न होंवें तो हमारा मन: जो पहिली दशा हैं घणा करता था फिर ललचाने लगा इसी भांति के व्यवहार प्रतिदिन हमारे सन्मुख मत्येक -चस्तुओं - में -दृष्टि: गोचर हुआ करते हैं परन्तु हम प्रकृति, के मूल कारण -से परिचित :नहीं इसीलिए उसकी -आनन्दपद दशा पर आनन्दित-होकर जीवन. को उसके भाप् करनें में व्यय किया करते,हैं इससे न तो इच्छा.ही पूरी होती है और ' ' न ही दुख दूर-होता है और हम -को मन, इन्द्रिय, शर शरीर. की निष्फल सेवा करनी पड़ती है। ०... कक... कद म्ल ० पाठकगण | झव झाप समझे गये होंगे कि हमारे दुखी का कारण मकृति की जद को-न जानना है और संसार में' रह ऐसा 'मंतुष्यं “नहीं 'किं जिसने शपनी ही भ्रन्वेषणा (डानवीन) से मकृति की सस्पूर्ण-दशा का 'ज्ञान उपानन कर लिया हो; झत। मढूंति-की जड़ और उसकी पिरुड़ शक्ति के न जानने से संसार में हमको दुख हो रही है इस कारण हमाराकतंव्य ' है. किंहम ऐसी बस्तु को भो मछृति के मतिकूल रुणों से आने-वाली हो “जानने का म्रयत्त करें । और उसकी उपासना 'से मकृति से उत्पस्न ' हुये ' दे खों को दूर करें, प्यारे पाठक गण | जव मकृति की दशाओं “को “हम “देखते हैं तो विदित होता है कि मकुति सर्न व्यापक झंपरिशामिनी और




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