हृदय की परख | Hriday Ki Parakh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
176
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दूसरा परिच्छेद श्श्र
घोरे-घोरे उज्तका जंगल में घूमना, कुंज में बैठकर फूल मुँथना
और पक्षियों की चहदचहाहट को ध्यान से सुनना प्राय: छूट दी
स्रा गया । अब उसका झवबकाश का सारा समय उस 'अंघेरी
रुफा से या उसी पींपत्त के चृक्ष के नोचे पुस्तक पढ़ने में लगता था ।
जब दोपहर सें सोजन के बाद सारे गाँव से सन्नाटा छा जाता,
लोग बिश्रास करने लगते, तव सरला वहां बैठो-बेठी पुराने
मंधों के पत्रें उ्लस-पत्लटा करती थी । लॉकनाथ जन खेत
से घर छौटकर पुकारता--''बेदी !”, तो दुखता, द्वार बाहर
से बंद है, बेदी वहाँ नहीं है । तब वह वहीं गुफा में जाकर
देखता, उसछी नेटी स्थिर साव से किसी पत्र एर नज़र ढाल
रद्द है। लोच्नाथ सघुर तिरस्कार से कहता--'यह कया पागल-
पन है सरलता ! स्ाना-पीना कुछ नहीं, जब देखो तसों कारार्का में
ाँखें गड़ाए है--इन काग्र ज्ों सें कया रक््खा है ?” सरतला सर-
लता से चठ खड़ी होती, 'और बूढ़ें की डगल्ली पकड़कर कहती--
“काहे काका ! भोजन हो बनाफर रख छाई थो, तुमने 'झसी
नहीं खाया १7?
“कहाँ ? तू तो यहाँ बैठो हैं ?” फिर घर 'छांकर दोनो
भोजन करते ।
गाँव के लोग न-जाने क्यों, कुछ सरक्ञा से छरते-से थे ।
उसकी दृष्टि कुछ ऐसी थी कि सरला से न कोई ष्याँख दो मिला
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