हृदय की परख | Hriday Ki Parakh

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Hriday Ki Parakh by श्री दुलारेलाल भार्गव - Shree Dularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरा परिच्छेद श्श्र घोरे-घोरे उज्तका जंगल में घूमना, कुंज में बैठकर फूल मुँथना और पक्षियों की चहदचहाहट को ध्यान से सुनना प्राय: छूट दी स्रा गया । अब उसका झवबकाश का सारा समय उस 'अंघेरी रुफा से या उसी पींपत्त के चृक्ष के नोचे पुस्तक पढ़ने में लगता था । जब दोपहर सें सोजन के बाद सारे गाँव से सन्नाटा छा जाता, लोग बिश्रास करने लगते, तव सरला वहां बैठो-बेठी पुराने मंधों के पत्रें उ्लस-पत्लटा करती थी । लॉकनाथ जन खेत से घर छौटकर पुकारता--''बेदी !”, तो दुखता, द्वार बाहर से बंद है, बेदी वहाँ नहीं है । तब वह वहीं गुफा में जाकर देखता, उसछी नेटी स्थिर साव से किसी पत्र एर नज़र ढाल रद्द है। लोच्नाथ सघुर तिरस्कार से कहता--'यह कया पागल- पन है सरलता ! स्ाना-पीना कुछ नहीं, जब देखो तसों कारार्का में ाँखें गड़ाए है--इन काग्र ज्ों सें कया रक्‍्खा है ?” सरतला सर- लता से चठ खड़ी होती, 'और बूढ़ें की डगल्ली पकड़कर कहती-- “काहे काका ! भोजन हो बनाफर रख छाई थो, तुमने 'झसी नहीं खाया १7? “कहाँ ? तू तो यहाँ बैठो हैं ?” फिर घर 'छांकर दोनो भोजन करते । गाँव के लोग न-जाने क्यों, कुछ सरक्ञा से छरते-से थे । उसकी दृष्टि कुछ ऐसी थी कि सरला से न कोई ष्याँख दो मिला




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