कल्याण नमामि रामं रघुवंशनाथम | Kalyan Namami Ramam Raghuvanshnatham

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Book Image : कल्याण नमामि रामं रघुवंशनाथम - Kalyan Namami Ramam Raghuvanshnatham

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ए'द>/द>रतर>रूद>एद८: रन क ) ) | ं ं | ८ # समासि रास रघुवशनाथम, के खन्स-सश>द>स >> रकाऊ-द्ाऊ-दन७-दाि-द्ऊ- दान लो मूर्ख शुरुसे ईर्ष्या करते हैं; वे करोड़ों यु्गोतक रौरव नरकर्मे पड़े रहते हैं । फिर ( वहसि निकल कर ) वे तिर्वकू ( पु; पक्षी आदि ) योनिर्वोमें शरीर घारण करते हैं और दस हजार जन्मॉतक दुश्ख पाते रहते हं॥३॥ बेड रहदेसि अजगर इव पापी । सपे होदि ख़ल मल मति व्यापी ॥ महा विठप कोटर मई जाई | रड॒ अघमाघम अघगति पाई ॥ ४॥ अरे पापी ] द्‌ गुरकें लामने अजगरकी भाँति बैठा रहा ! रे दुप ! तेरी इुद्धि पापसे ढक गयी है; [ अतः ] दू रुप हो जा । और: अरे अघमसे भी अघम | इस अघोगति ( सर्पकी नीची योनि ) को पाकर किसी बढ़े भारी पेड़के खोखलेमें जाकर रद्द ॥ ४ ॥ -दाहाकार कीन्द गुर दारुन सुनि सिर साप। कंण्ति मोहिं विठोकि अति उर उपजा परिताप ॥ १०७ (क) ॥ शिवज्ञीका भयानक झाप छुनकर शुरुीने हाह्मकार किया । मुझे कॉपता हुआ देखकर उनके दुृदयमें बढ़ा सन्ताप उत्पन्न हुआ ॥ १०७ ( के ) ॥ करि दंडदत सप्रेम दविज सिंव सन्मुख कर जोरि। विनय करत गदरद खर समुझि घोर गति मोरि ॥ १०७ (ख ) ॥ प्रेमसहित दण्डवत्‌ करके वे ब्राह्मण श्रीदिवजीके सामने हाथ जोड़कर मेरी मयझकर गति ( दण्ड ) का विचार कर गदुगद वाणीसे विनती करने ढगे--॥ १०७ (ख ) ॥| नमामीशमीद्याव निचाणरूप॑ । विभुं व्यापक ब्रह्म चेदसरूप॑ ॥ लिजं॑ चिगुंण निर्चिकट्प लिरीदं । चिदाकाशमाकाशवासं.. भजे5दं ॥१॥ हे मोझखरूप; विभु; व्यापक; ब्रह्म और बेदत्वरूप; ईदान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीदिवजी ! में आपको नमस्कार करता हूँ । निजस्वरूपमें स्थित (अर्थात्‌ मायादिरहित); [. मायिक 3 गुणोंसे रहित) भेद्रदित; इच्छारहित; चेतन आाकाशरूप एवं आकादकों ही वल्नरूपमें धारण करनेवाले दिगम्बर [ अथवा आकाशको भी आच्छादित करनेवाले ] आपको मैं भजता हूँ ॥ १ ॥ नलिराकारमोकारदूद तुरीयं । गिंस ज्ञान गोतींतमीद गिरीदां ॥ कल मद्दाकाल काल कपाल । णुणागार संसारपार नतो्हें ॥२॥ निराकार) आ्ञारके मूल; तुरीय ( तीनों शुर्णोठे अतीत ); वाणी; ज्ञान और इन्द्रियोले परे; कैढासपति; विकरा्; महाकाल्के भी काल; कृपाछ; शुर्णोके घाम; संसारसे परे आप परमेश्वरको में नमस्कार करता हूँ ॥२॥ चुपाराद्धि संकाश गौर गमीर | सचोभूत कोठि प्रभा श्री शरीर ॥ चर व चार गंगा । लसद्धालवालेन्दु॒ कठे झुजंगा ॥३॥ - चछके समान गौरवर्ण तथा गम्मीर हैं, निनके दरीरमें करोड़ों कामदेर्वोकी ज्योति एवं छोमा है; लिनके रिरपर झुन्दर नदी गज्ञानी विराजमान हैं; जिनके छछाटपर द्वितीयाका चन्द्रमा और गेम ्सप चुशोमित हैं ॥ ३ ॥ चलत्कुडल सर छुनेत्र॑ विशाल । असज्ञाननं. चीलकंटठ. दयालें ॥ - खा न सुण्डमाल । प्रिय शंकर खवेनाथ. मजामि ॥ ४४ ऊुण्डल दिल रहे दूं; सुन्दर श्रकुरी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयाड हैं; सिंहचर्मका वल् धारण किये और सुण्डमाला पहने न क _ रलेगडे भीकरबीको मैं मनता हूँ ॥ पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ; [ कल्याण कक न ऊ-धाऊ- ७ दाज/




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