मन्त्र प्रभाकर | Mantra Prabhakar

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Mantra Prabhakar by स्वामी हंसस्वरुप - Swami Hansaswaroop

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( हे९ |) ऋषियों के दस कार 'विषे क्‍या २ सिद्धाग्त हैं चणन कियजातदैं 1 ७० इ एकगाबावालां का कसिद्धान्त । वाष्कट्य श्दृषि के गतावलम्वी जो अक्रार को मुक्त गोन्नारूप जानकर भजनकरतहें उनका यह यिद्धान्त है कि इस 3धकार रुप एकाक्षखप के दो स्वरा हैं एक “ सगुण” दूसरा “ निगुण ” इसकारण दोनों रूप से इसकी उपासना करतहैं । सगुण उपासनावालि यह जानतहैं कि सगुणरूप का अधि्टान निगुण है और कोई वस्तु अपने अधिष्टान से प्रधक्त हातानहीं इस कारण यदद सगुण अपन अधिष्टान नियुंण से प्रथक न होनेके कारण एकही है अभ हैं इम से इतर निगुण नहीं। और गिगण उपासनावाल यह जानतहैं कि बड़ी निगण अपनी इच्छाशक्ति से सगुण हेतारै ( इन्द्ोमाया- मिः पुररूप इयते । ऋ० वेद) जर्थात पत्दू वी इंश्वर * मायामि!' अपनी गाया से ' पुरुरुप सनेक रूपा को 'इयत” घारणकर्ताह इसकारण निगुण से सगुण इतर नहीं, इम्रीकार्ण उक्त प्रकार सगुण, निगुण, दाना की एकता दोन से इस कार को एक मात्रा कहतोहें जिस से ये सर्वे स्थूठ सूक्ष्म, काय्ये कारण,




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