ज्ञान प्रकाश | Gyan Prakash
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5.01 MB
कुल पष्ठ :
206
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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“राग” भाव से संसारी जीव का वध; बंध, ताइ़ना; भय; शोकादि का
दुख देख के किसी मलुष्य के हृदय में जो तीव्र दुःख हुमा. वह तो
मोह जनित अजुकम्पा है । इससे आत्मा कछुषित हुई निश्चय; परंतु
यह. कठुषता दूर तो तब ही हो सकती दै जब दुःख का कारणभूत
कर्मा का स्वरूप समझ उन कर्मा को नाश करने का प्रयत्न किया
जाय। किसी बंधे हुये जीव का बलवान कृत उपद्रव देख के उसका
बन्घन काट देना कोई निज झात्मा की कलुपता दूर करने के
उपाय नहीं है। भात्मा की ऐसी कछुपता दूर करने के लिये हम
अनित्य सशरणादि भावना द्वारा यदद विचार करें. कि “'अद्दो कर्मा
“की कया चिचित्र गति है, इस दुम्खी जीव ने न माठम केसे कर्मा का
“'उपाज्ज॑न किया था सो इस तरह सताया जाता दै, हमें इससे यददी
“शिक्षा लेनी 'चादिये कि दम किसी को पीड़ा न दें ताकि उसके
“फलस्वरूप इस तरद पीड़ा भोगनी न पढ़े” तो ऐसी भावनामों से
ही कल्याण होगा । संसार में 'बारों तरफ नजर डालिये,. देखियेगा
कि दुर्गठ पर बछवान का अत्याचार 'द्ोता दी है; चाहे वह किसी
भी नाम से हो भोर किसी भी कारण से दो । हमारे ,निज की तरफ
से जब तक किसी को दुःख न प्रहुंचाया गया और दुःख देने वाले
की मदद या मलुमोदूना न की .गई तब तक हमें उस दुःख से कोई
वास्ता नहीं; दम उसके भागीदार नद्दीं । जो दुःख देगा, वह उसका
फल भोगेगा । देखनेवाढे की उसके लिए कोई जिम्मेवारी दो ही नहीं
सकती । दृष्टान्त द्वारा इसको सुगमता से 'समभाने का प्रयन्न करता हूं-
( १.) 'कोई चोर दूसरे का धन चुराता दै--कोई उसे . कहे
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