गीता प्रवचन भाग 2 | Geeta Parvachan Vol-ii

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Book Image : गीता प्रवचन भाग 2  - Geeta Parvachan Vol-ii

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आचार्य विनोबा भावे - Acharya Vinoba Bhave

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हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyaya

हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रास्ताविक मारयाधिका भर्जुनका विषाद श्५ कौन कठिन बात है ? सन्यासकों आसान वतानेवाला स्मृति-वचन तो है ही । परन्तु मुख्य वात वृत्तिकी है । जिसकी जो सच्ची वृत्ति होगी, उसीके अनुसार उसका धमं होगा । श्रेप्-कनिप्, सरल-कठिनका यह प्रश्न नही है। विकास सच्चा होना चाहिए । परिणति सच्ची होनी चाहिए । १४ परन्तु कुछ भावुक व्यक्ति पुछते है--“यदि युद्ध-धमंसे सन्यास सचमुच ही सदा श्रेष्ठ है, तो फिर भगवानुने अर्जुनकों सच्चा सन्यासी ही क्यो न बनाया ? उनके लिए क्या यह असम्भव था ?” उनके लिए असभव तो कुछ भी नही था । परन्तु उसमे अर्जुनका फिर पुरुपाथ॑ क्या रह जाता * परमेश्वरने स्वतन्त्रता दे रखी है । अत हर आदमी अपने छिए प्रयत्न करता रहे, इसीमे मजा हैं । छोटे वच्चोको स्वय चित्र बनानेमे आनन्द आता है। उन्हें यह पसन्द नहीं आता कि कोई उनसे हाथ पकड़कर चित्र वनवाये। दिक्षक यदि वच्चोके सवाल झट हुल कर दिया करे, तो फिर बच्चोकी वृद्धि बढ़ेगी कैसे ? मत मां-बाप भर गुरुका काम सिर्फ सुझाव देना है। परमेश्वर अन्दरसे हमें सुझाता रहता है । इसमे अधिक वह कुछ नहीं करता । कुम्हारकी तरह भग- वाचु ठोक-पीटकर अथवा थपथपाकर हरएकका मटका तैयार करे, तो उसमें खूवी ही कया ? हम मिट्टीकी हूँडिया तो है नहीं, हम तो चिन्मय है । १५ इस सारे विवेचनसे एक वात आपका समझसे आ गयी होगी कि गीताका जन्म, स्वधमंग्रे वाधक जो मोह है, उसके निवारणाय॑ हुआ हे । अर्जुन धर्म-समूढ हो गया था । स्वधमके विपयमे उसके मनमे मोह पैदा हो गया था । श्रीकृष्णके पहले उलहनेके वाद यह वात अर्जुन खुद ही स्वीकार करता है । वह मोह, वह ममत्व, वह आसक्ति टूर करना गीताका मुख्य काम है। इसी- लिए सारी गीता सुना चुकनेके वाद भगवानुने पुछा है--“अर्जुंन, तुम्हारा मोह गया न ?” और अर्जुन जवाब देता है--“हाँ, भगवनु, मोह नष्ट हो गया, मुझे स्वधर्मका भान हो गया ।” इस तरह यदि गीताके उपक्रम और उपसहारकों मिलाकर देखे, तो मोह-निरसन ही उसका तात्पर्य निकलता है । गीता ही नही, सारे महाभारतका यही उद्देव्य है । व्यासजीने महाभारतके प्रारभमे ही कहा हैं कि लोकहृदयके मोहावरणको दूर करनेके लिए मैं यह इतिहास-प्रदीप जला रहा हूँ ! ४. ऋजु-बुद्धिका अधिकारों १६ आंगेकी सारी गीता समझनेके लिए अ्जुनकी यह भूमिका हमारे बहुत काम आयी है, इसलिए तो हम इसका आभार मानेगे ही, परन्तु इसका और ्ड




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