राजपूताने का इतिहास | Rajputane Ka Etihas

Rajputane Ka Etihas by महामहोपाध्याय राय बहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा - Mahamahopadhyaya Rai Bahadur Pandit Gaurishankar Hirachand Ojha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४५३ स्थापना हो चुकने पर इंप्यी और मत्सर ने अपना प्रभुत्व दिखाया और परस्पर के कगड़ों से देश में रक्त की नदियां बहने लगीं । उसके शनंतर विदेशियों के भराक्रमणों का प्रारंभ दोता है। सर्वप्रथम इंरान के सप्नाद्‌ दारा ने और उसके थाद सिकेद्र एवं उत्तर के यूनानियों आदि ने इस देश पर अपना प्रभुत्य जमाना खाद । बोद्धों और श्राह्मणों के धार्मिक संघ ने भी भारतवर्ष को दानि झावश्य पहुंचाई । फिर मुसलमानों की इस देश पर कृपा हुई और अन्त में यदद यूरोपीय जातियों का लीलाक्षेत्र बना । मुसलमानों के समय में तो प्राचीन नगर, मन्दिर, मठ आदि घर्मस्थान, राजमद्दल और प्राचीन पुस्तकालय न कर दिये गये, जिससे भारतीय इतिहास के अधिकांश साधन घिलुप्त दो गये। इन सब घटनाओं से स्पष्ट दै कि ऐसी अवस्था में इस देश का न्खलाबद इतिदास बना रदना और मिलना कठिन दी नहीं बरन असम्भव है। खुप्रसिद्ध मुसलमान विद्ान, अबुरिदां अलबेरूनी ने, जो ग्यारदर्यी शताब्दी में कई वर्षों तक भारतवर्ष में रदकर संस्कृत पढ़ा और जिसने यददां के मिन्न मिशन विषयों के भ्रन्थों का अध्ययन किया था, अपनी पुस्तक 'तहकीके दिन्द' में लिखा है कि, “दुभोग्य दै कि दिन्दू लोग घटनाओं के पतिद्ासिक क्रम की और 'ध्यान नददीं देते । वर्षानुक्रम से अपने राजाओं की वंशावलियां रखने में भी वे बड़े झ- सावधान हैं ौर जब उनसे इस विषय में पूछा जाता है तो ठीक उतर न देकर वे इघर उधर की बातें बनाने लगते है”; परन्तु इस कथन के साथ दी वह यदद भी लिखता है कि “नगरकोट के किले में वद्दां के राजाओं की रेशम के पट पर लिखी हुई वंशावली दोने का सुके पता लगा, परन्तु कई कारणों से में उसे न देस्त सका” * । इसलिये अलुबेरूनी के उपयुक्त कथन का यही अभिप्राय दो सकता है कि साधारण लोगों में उस समय इतिहास का विशेष शान न दो; परन्तु राजाओं तथा राज्याधिकारियों के यहां पेतिहासिक घटनाओं का विवरण अवश्य रद्दला था । अलबेरूनी के उपयुक्त कथन से यदि कोई यद्द आशय समकते दो कि दिन्दू जाति में इतिदास लिखने की रुचि न थी अथवा दिन्दुओं के लिखे दुए (१) पड साथू, अलुबेरूनीज़ इंडिया; जि० २, छर० १०-११ । (९) वही; जिन र, हु 91 |




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