भक्ति - योग | Bhakti - Yog

Book Image : भक्ति - योग  - Bhakti - Yog

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about स्वामी विवेकानंद - Swami Vivekanand

Add Infomation AboutSwami Vivekanand

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
भक्ति के लचण श्पर 'द्शन” के समानार्थक व्यवद्दार किया गया है। क्योंकि जो निकट है वह देखा जा सकता है; किन्तु दूरवर्ती बस्तु का केवल स्मरण हो सकता है। तथापि शाख्र हमें निकटस्थ तथा दूरस्थ दोनों को देखने को कहता है। इस प्रकार स्मरण तथा दर्शन दोनों समकारयेकर 'और समभाव हैं। यही स्पत्ति प्रगा दोने2 पर दर्शन ही के समान हो जाती है। शास्ों के प्रधान-प्रधान शोकों से यह स्पष्ट है कि सर्वदा-स्मरण ही उपासना है । ज्ञान-- जो निरंतर उपासना से झमिन्न है--निरंतरस्मरण ही कहा गया है। इसीलिये जब स्पृति प्रत्याक्षानुभूति का आाकार धारण करती है; तो शास्र उसे मुक्ति का कारण कहता है । यह 'आत्मदः नाना प्रकार की विद्याओं द्वार; बुद्धि द्वारा किंवा धनवरत वेदा- ध्ययन द्वारा नहीं प्राप्त होती । जिसको यह 'ात्मा स्वयम्‌ बरती है, वद्दी इसे प्राप्त करते हें और उन्ही को यह श्ात्मा अपना स्वरूप प्रकाशित करती दै। यहाँ पहले तो यह कहा गया है कि यदद छात्सा श्रवण, मनन तथा अधिक अध्ययन द्वारा भी नही प्राप्त होता और फिर कहते है कि आत्मा जिसको स्वयम्‌ वरती है, उसे दी वह प्राप्त होती है। '्त्यन्त प्रिय को ही बय जाता है। जो श्रात्मा से अतिशय रेस करते हैं, 'ात्मा उन्हीं को अत्यन्त प्रेम करती है। और इस प्रिय व्यक्ति को आत्मा प्राप्त करने में स्वयं भगवान सहायता करते हैं। भगवान ने स्तरयं कह है “जो मुकें निरंतर ासक्त है '्औौर प्रेम से मेरी उपासना करता है, में उसकी बुद्धि 'और भावनाओं को ऐसा संचालित कंरता हूँ कि दद्द भुमे




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now