वेदान्तरत्नाकर | Vedant Ratnakar

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Vedant Ratnakar by विष्णु देवगिरी - Vishnu Devagiri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( हे ) ' परमात्मा भी विमुय है..। “इसलिये भाई विवेक ! तुम ही शीघ कर सेंसग्यपूर्ण यघनों से इनको पैर्य प्रदान फरो ॥१०॥। । सैसे फिसी भरमें राग लग ज्ञानेपर उसे जल आदि! डालकर घुमाना आारम्भ फरते हैं परन्तु प्रायः ऐसा देखने में आता है कि 'उपर से अग्नि शान्त जैसी दिग्याई पढ़ने पर भी नीचे जलतां । ही रहता दे और यह तथ जान पड़ठा द जब उपर फेंका हुछा । जल एवां लगफर सूस जानेसे अग्नि की ज्यालायें ऊपर दिखलाई पड़ने लगें । इसी प्रकार यदां भी जय .चिसरूपी « मासाइ में रागानल धघकने लगता है सो,दसे चित्त प्रयोधन, विपयदोप- दर्शन एवं -रागिदुदंशानिरी कण रूप ललप्रहेप' से शान्त फंरना छारम्म फरने पर.बह उपर से शान्त-सा श्रह्तीत ोनेपर भी भीतर दी भीतर सुलगता रदता दे । यदद यात्र तय मादम दोती दे जवकि पिपयसंयोग दोनेपर वद्द राग धपसा विकराल रूप धारणकर घादिर प्रकट होता है 1 इसलिये ऐसी अवस्थामें मुमुत्त फो चाहिये फि वह रायफी निवृत्तिकें अम से पूर्वोक्त साधनों के, ्रनुघानका स्याग न करे;' किन्तु जवतक रागाग्नि सर्वथा घुफ न जाय सियतक उनका 'अनुधान,निरालस्य दोफ़ पू्व॑वत्त फरता ही रहे 1,यददी.घात पिम दो स्टोफोंसे कही जाती है... च पूर्व 'य सपने आासीन्मम हृदयंबिले रागनामा भुजडू सो्डय' संयो_ व्यजायर्विपमविष॑मय: ''प्रेयसः ' सेंप्रयोगे । हो ' दो , द्टोडस्म्‌ दुष्ट: पति, वपुरिदें , थूणते , मनसूं मे कष्ट: ओः सबमेतरसपदि सम भवर्दून्यमन्तर्वियोगे॥! ११५




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