युग - परिवर्तन | Yug Parivartan

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Yug Parivartan by कृष्ण लाल जी गोयनका - Krishn Lal Ji Goyanaka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपना राज्य शासन जमालिया; इघर दम परतेत्र चनगए । इतनाही नहीं वरन उनके आतेंरू से करोड़ों खो-पुरुप विधर्मी होकर यो रश्षक के बदले गो भव्क कहा कर दमदीसे झगड़ा करनेके लिए तेयार देशगये । अंतरम इसका फल यह हुआ कि भारत जो कभी संसारम आददश देश कहलाता था घद्द उपसेक्त ज्हरी उप्जञाठ में फेंसरर आज गारत होगया | २१ प्रिय पाउफगण ! भारतकी ऐसी दुदेशा को देस्वकर भी; हृदय विचछित न दो ! यदी कया हमारा घम्म है ? क्दापि नहीं, क्योंकि 'यतोंनिः्शे यसःसिद्धिग्सघमः' शर्म चह है कि जिसके जाचरणसे निरंतर ऋल्याणकी घाति हो । इन कलिघमकी बातोंसि हमारा कया कल्याण हुआ 2उुछ नहीं ! दम वेकार दी नहीं वरन जीतेजी मुर्दों दोगप । भगवान धीरृष्ण दास गासाम लिस्वी डु् दैची सम्पत्ति सब चछी गईं, और आखुरीने अड्डा जमालिया श्र यदि कहूँ कि ” चोदनालक्षणोज्थो धर्म: ” श्रतिस्सुत्यादि घोर विधि विधानादि लक्षण युक्त अ्धवान घर्म दो, तो इस कफलि घममें तो विधि- चिधानें रो नामशेप कर दिया गया है। संपूर्ण श्र यर्शेफा तो क्या अग्नि ोन्सा भी कलिधमेमें निषेध है । वहभी निरथेक यानी यशोंकि रहस्य को और चेदमेत्रोके अर्थ को न समझ कर उसका निषेध किया गया है । और इतिहास को देखनेसे इससे अथ ( छाम ) न होते हुए अनय ( नुकसान > ही हुआ है । इससे मालूम होता है फि ये सच कठिफी करपनाएं, हू । २३ यदि रहें कि ये कच्पना ही हैं तो ये ऋलियुग मे ही उद्धल होली चाहिये और क्रलियुगको तो आरंभ हुये ५००० चब के उपर होगए है। तय तो कई स्खति पुराणादिकों में इस ( कलिघमे ) का चणन मिलना चाहिये । उससे भी- चली पायाशराः स्टता: ” फठियुण सम्बधी चार्ते पराशर स्सतिमें सिलनी चाहिये । विंतु जब मेंने पराशर स्खति देखी तो उसमें कषेमज कम्िमादि को पुभनत्य [पि. रद, ४.२४] और पुनर्चिवाद [प. स्दू, ४-३०] कहा है। और माधवाचार्यने अपनीरी काम उपयेक्त चातोफो युगांतर विपयक कहते हुए आधार आइित्य पुसाण का बताया ६ 1 तथा [ परादार रु ९-३४ पर १३३ में ] संपूर्ण फलिघज्य यात यक रथलम दी लिय दी है । २४ किंतु वहां टिप्पणीमें लिखा है सि-- दौेकाठं घरह्मचर्यमित्यारम्य [ ए् १३३ पं. ७ ] निवतिताति कमाणि [ पर. १३७ पं. १०] इत्यन्तानि वाक्यानि बहामि निंवन्धकारे: कलिवज्य अकरण स्वनतथ तत्र मंग्रहीतानि दृश्यन्तें । झब्राचित्‌ पंचेव कमांग वज्योन्युक्तानि छुवापि बहुनीति भेद: 1” [ए. १३७] इमा




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