गुरुमुखी लिपि में हिन्दी काव्य | Gurumukhi Lipi Me Hindi Kavya

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Gurumukhi Lipi Me Hindi Kavya by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्कयन श्र सन्‌ १७६५ (लाहौर विजय) तक पंजाबी जीवन स्वेथा श्रव्यवस्थित रहा । पंजाबी हिन्दू और सिक्ख भात्मरक्षा, प्रतिकार, विद्रोह शरीर विरोध के युद्ध में व्यस्त रहे ; काव्य-सूृजन श्रौर काव्य-श्रवण का किसी को अवकाश न था । अतः कोई श्राइचर्य नहीं कि इस समय मे (१७०८ से १७६५ तक) कोई महत्त्वपुणें काव्य रचना पंजाब के इस जन-समुदाय द्वारा नहीं हो सकी 1 इसके बाद भी साहित्य रचना की गति प्राय: मन्द ही रही । गृस्थो का लोप--इस सम्बन्ध मे ध्यान देने योग्य वात यह भी है कि ऐसे श्रव्यवस्थिंत वातावरण में ग्रथों की सम्माल भी ठीक तरह न सकती थी । झ्ादि- ग्रम्थ की प्रथम प्रति, दशम ग्रन्थ का बहुत वडा भाग, दरवारी कवियों द्वारा रचित विद्यासागर नामक ग्रन्थ झर महाभारत के कतिपय अ्रनूदित पते शत्रुसेना से लड्ते समय सदा के लिए काल-कवलित हो गए । इन प्रत्यो के विनाश का वृत्तान्त तो 'इत्तिहास-वेत्तां को पता है, किन्तु विनाश की सम्पूर्ण कहानी चता सकने में इतिहास असमर्थ है । निरतर श्रसुरक्षित झर श्रव्यवस्थित जीवन व्यतीत करने याले पंजाबी कितने ही छोटे-बडे ग्रस्थो की रक्षा न कर पाये होगे--ऐसी कल्पना सहज ही यी जा ख्रकती है । इससे पहले पूर्वनानक-काल में प्राय सम्पूर्ण काव्य-भण्डार ऐसी ही भ्रसुरक्षा की भेंट हो चुका था । सग्हवी श्रौर श्रठारहवी शर्ताब्दियों में कुछ ग्रन्थों का उद्धार हो सका, इसका श्रेय तत्कालीन जागरण को ही है. । हमारी निदिचित घारणा है कि इस युग का एक वहुत वा काव्य-भण्डार सत्कालीन सामाजिक श्रव्यवस्था की भेंट हो गया । श्राज जो साहित्य उपलब्ध है वह परिमाण की दृष्टि से तत्कालीन सृजन-क्रिया का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता 1+ श्रधिव' से श्रघिक यह गुण की दृष्टि से ही प्रतिनिधित्व करने वा दावा कर सकता है । वर्ग साहित्य १. दासक वर्ग ३ (फारसी में इतिहास-प्रत्य)--पजाव दी मुस्लिम जन- सख्या सहज रुप से ही दो भागों मे वेंटी हुई दिखाई देती है । सिवस-साहित्य में 'तुरक' थर 'मुसलमान' दो शब्दों का सामिप्राय प्रयोग हुमा है । ये शब्द मुस्लिम जन-सख्या के जातिं-गत विभाजन की झोर इगित करते हैं । तुके शब्द थासवा-वर्ग का सुचक है । यह बे घामिक दृष्टि से ही नही, सास्कृतिक दृष्टि से भी श्रभारतीय था । नवोदित हिन्दू राप्ट्र चेतना का विद्रोह इसी शासववर्ग के प्रति था । यहाँ यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि सपुणों सिवख साहित्य में जहाँ 'तुरक' के लिए कई यार निन्दा-सूचवा भाषा का प्रयोग हुमा, वहाँ मुसलमान” का उल्लेख सदा श्रादर-सुचक मापा में हु है । इस दण्डप शासव्वर्ग से वाव्य-सुजन की झाशा व्यर्थ है । ऐंता प्रतीत होता है जैसे उनके हृदय से वोमलता घौर झार्दता के सभी सोत सुख चुके थे । हम इन्हें दण्ड- विलास में व्यस्त पाते हैं । इस वर्ग द्वारा विसी प्रवार की काव्य-रचना का परिचय हमारी शोघावधि में नहीं मिलता । हाँ उसके झाधित इतिहासबारों द्वारा समदालीन इतिहास वा भमिलेखन अवश्य हुआ है ।




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