आदर्श पत्नी | Adarsh Patni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका - कि की मूल-जननी श्त्री-लाति है; घुरुप-जाति नहीं । यदि स्त्री ने झपना दायिव-भार हलका करने के लिये पुरप को न युचकारा होता, तो इस संसार में कोई उकांति न हुई होनी । संसार के सबसे पुराने ध्रीर हिंदुों के मास्य प्रंथ घेदों, तक में दौपयय विज्ञान ने स्थान पाया । नारी-माति का यर्णनातीत सम्मान धिदिक काल में था । खी अपने कुइ व में सम्नात्ती फे पद पर प्रतिष्टित की गईं /थी-ण 'सम्नान्वेधि श्वशुरेपु सम्राइयुत देवृपु 3 ननान्दु: सम्राइयेधि समर इपुत्त श्वश्रवा: 1” 'अर्थाद--वधू , दू ससुर, सास, देवर, ननेद आदि की सद्दारानी थनकर रद्द । और देखिए-- $ “यथा सिन्घुनेदीनां सम्नाज्य॑ सुपुवेशूपा ; एवां रे सम्राइयेधि. परपुरस्तं परेस्य ।” इत्यादि चेद-संत्रों से छी-जाति के श्वधिकार, पद, प्रतिष्टा श्रौर सान-सम्मान का पूरा पठां 'चल जाता है । बेदी के वाद वन्य शाख्रकारों ने भी-- मी * दाराघीनाः क्रिया: सी दारा स्वगेस्य साधनमू 1”: कइकर स्थी-जाति की सदा प्रदर्शित को है । सजु्काल में भी सियों का समुचित श्ादर-सम्मान था । उन दिनों -- पत्र नायंस्वु पूज्यन्ते ग्मन्ते तत्र देवता: 7” का सिद्धांत माना जाता था । इसके परचात्‌ खी-जाति दपना पद भण्ण नहीं रख सकी । जिस गुण के कारण यी ने पुरप को चपना श्रारंभ में साथी यनाया था, चदद शुण उसमें न रद, 'घौर पुरप उस पर झ्पना इतना धाधिपत्य रपापित करता घला गया कि खी-जाति निरंतर दयती ही गई, और ददते-दवते इस दशा को पहुँच गई कि पुरप की दृष्टि में स्त्री वा कोई मूल्य दी नहीं रह गया। अब शहद न “स्रीशुद्रद्विजयन्थूनां न वेद्धव्ण सतमू ।” खो को गूद्द दे: तुसुप मानने लगा । भारतीय नारियाँ चेद की अधिकारिणी नहीं रद्द गई । एक युग था, जव यों का. दोलदाला था--समानाधिषार ही नहीं, विशेषाधिद्ार भी प्राप्त थे 1 चद्द कितना सुखद इरप था ! धीराम बननामन की चाहा प्राप्ययें अपनी माता कौशल्या के माइल में पहुँचे । बहँ उन्दोंने दखा-- “सा छीमवसना दृ्टा नित्य घ्रवररायणा ; अर्रिन जुद्दोति सम तदा मस्य्रवक्ततमज्ञला।” *




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