सप्त - दीप | Sapta Deep

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Sapta Deep by डॉ. रघुवीर सिंह - Dr Raghuveer Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( है.) चिचार-धारा उसी छोर अपसर होती है। राप्टीय विचारों में, सांस्कृतिक दृष्टिकोण में, जब-जब क्रान्तिकारी परिवतेन ' हुए हैं, तब-तब उनके फलस्वरूप मानव घिचार-धारा के पथ में भी बहुत कुछ परिवतेन हुए ्ौर उन्हीं नवीन पर्ों पर नवीन बिधार- धारा की तर टकराने लगी हैं । भारत, आधुनिक भारत, २०वीं शताब्दी का भारत, उपयुक्त नियस का अपयाद नहीं है । आधुनिक परिव्तन-काल में भारत में अपनी दशा के प्रति जो भीषण असन्तोप फैला है, जो भावना उसे राजनीतिक पुनर्स्थान की ओर झम्रसर होने को प्रेरित करती हैं, उसी छासन्तोष की भावना की तरज्ञ भारतीय कान्य- साहित्य फे सहान आआदर्शों के उन्नत तटों से टकरा-टकरा कर उस पर सी अपने चिन्ह छोड़ जासे का प्रयल्न कर रही है ; चोर साधुनिक भारत का--र०वीं शतात्दी के इस परिवर्सन-काल का-- कवि-हृदय देश-काल से ऊपर नहीं उठ सका है । विश्व-कषि को उत्पन्न करने के लिये व्यक्तिगत महान मानसिक प्रतिभा की ही आवश्यकता नहीं होती किन्तु विश्व-झषित्व के किये एक विशिष्ट चातावरण की भी आवश्यकता होती डे; झोर जब-जब फिसी देश के राष्ट्यि विचारों में क्रान्तिकारी परिवतंन होते हैं, तब उस देश की विचार-धारा दो विभिन्न खरडों में होकर बहती है; जहाँ एक ओर विध्वंसकारी भयछर प्रवाह बहता है. सो उप्के साथ ही दूसरी ओर एकीकरण-काल समुपस्थित होता हैं, जो पूर्ण प्रयन्न से इन नवीन परिव्तनों का विरोध करता है ।




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