सामवेदीय गृहयसूत्रों के विभिन्न पक्षों का समीक्षात्मक अध्ययन | Samvediya Grahsutron Ke Vibhinn Pakshon Ka Samikshatmak Addhyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
92.36 MB
कुल पष्ठ :
200
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)है | इनमें पंचमहायज्ञों को प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनिवार्य रूपेण प्रतिपादित किया गया है| इनमें
श्राद्वों के भी विस्तृत वर्णन उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार गृह्यसूत्रों में समाजशास्त्र व जातिशास्त्र
सम्बन्धी तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
धर्मसूत्र यृहयसूत्रों की ही एक कड़ी रूप में हैं । इनमें धार्मिक नियमों तथा राजा एवं
प्रजा के कर्तव्यों के वर्णन उपलब्ध होते है । इन्हीं धर्मसूत्रों के ही आधार पर आगे चलकर स्मृतियों
का विकास हुआ |
चतुर्थ स्थान में शुल्वसूत्र है। शुल्व का अर्थ है - नापने की रस्सी। यज्ञ वेदि को
नापकर निर्मित करने का विधान इस सूत्र में किया गया है। इन शुल्वसूतों का सम्बन्ध श्रौतसूत्रों
से है, क्योंकि ये भी यज्ञानुष्ठान के एक भाग की पूर्ति करते हैं। ये शुल्वसूत्र भारतीय ज्यामिति
शास्त्र के आधारभूत स्तम्भ ग्रन्थ हैं |
व्वह्कदपण -
व्याकरण का व्युत्पत्तिलभ्यार्थ है शब्द व्युत्पत्ति को बतलाने वाला शास्त्र -
“व्याकियन्ते द्युत्पादन्ते श्रब्दा अनेनेति/ व्याकरण को वेद पुरूष का मुख माना जाता है -- “मुखें व्याकरण
स्यृतमू / मुख होने के कारण ही वेदांगों में इसकी मुख्यता है | व्याकरण सम्बन्धी प्राचीन सूत्र ग्रन्थ
_ तो नष्टप्राय ही हैं। उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर आरप्यकों में जो व्याकरण सम्बन्धी
पारिभाषिक नियम हैं वही व्याकरण के प्राचीन श्रोत हैं। ऋग्वेद संहिता के एक सुप्रसिद्ध मंत्र में
व्याकरण का एक विचित्र वृषभ के रूप में वर्णन किया गया है। व्याकरण को कामनाओं की पूर्ति
करने के कारण ही वृषभ रूप में परिकल्पना की गयी है। इस व्याकरण वृषभ के चार सींग हैं-
नाम, अख्यात, उपसर्ग व निपात।| वर्तमान, भूत और भविष्य में तीन काल ही इसके तीन पैर हैं|
सुप् और तिड् इसके दो सिर है। सातों विभक्तियाँ इसके सात हाँथ हैं । उर. कण्ठ व सिर इन तीन
स्थानों में बैंधा हुआ है। यह महान देवता है जो मनुष्यों में प्रवेश किये हुए है| -
“चत्वारि शृंगा तयोउस्य पादा दे शी्षे सप्तहस्तासों अस्य/
न्रिधा बद्धो वुषधो रोरवीति सहोकेवो सत्यों आविवेश //”
ऋग्वेद के एक अन्य मंत्र में ही व्याकरणज्ञ रणज्ञा व अव्याकरणज्ञ का वर्णन बड़े ही सुन्दर ढ़ंग से किया...
गया है। अव्याकरणज्ञ वाणी को देखता हुआ भी नहीं देखता, सुनता हुआ भी नही सुमता; लेकिन. 4
व्याकरणज्ञ रणज्ञ के लिए वाणी अपने स्वरूप को उसी प्रकार प्रदर्शित करती है जिस प्रकार सुन्दर वस्त्रों प
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