जारज | Jaaraj

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Jaaraj by राजेश्वर प्रसाद सिंह - Rajeshvar Prasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मा / _नमपपायपाणतककरम्वररहिगववरफाब्कपपकनपााा न ननननपककपणपणवकगरस या हर रा ज्ञारज भी मानो इस समय सब-कुछ समक रहा था । सरल, श्रबोध देवर के आँसू देख कर, गोविन्दी तड़प गई । झाँचल से उसके झाँसू पोंछ कर गोविन्द ने पूछा--“ठुम क्यों रो रहे हो, लाला ?” . शिवशंकर ने कोई उत्तर न दिया । “बोलो, लाला. ! ठुम कहे रो रहे हो ?”” “जिस लिए ठम रो रही हो !” '“्सेरे माग्य में तो अब रोना ही बदा है !” “क्‍यों, भौजी १” “ऐसे ही । अच्छा, यह बताझओ लाला, यह सुग्गा कहाँ पाया है”. 'प्यह तो मेरा ही है ।” शिवशंकर उठ कर बैठ गया--“इसे मैंने 'ही पकड़ा था । बड़ा अच्छा सुग्गा है ! खूब बोलता है ।”” उछल कर, कोठरी से निकल कर शिवशंकर ने पिंजड़ा उठा लिया । “तर देखो, भौजी !”” “जड़ा सुन्दर है !” शिवशंकर के हाथ से पिंजड़ा लेकर गोविन्दी -मुश्कराती हुई तोते को ध्यान से देखने लगी । “इसका नाम कया है, लाला १” ““गंगाराम । बोलो, गंगाराम !”” _ तुरन्त गंगाराम टार्यैं-टार्य करने लगे । _ “यह नहीं । कहो, सीता राम !” '“शीता-अआम ! शीता आम !” तब देवर-भावज खिलखिला कर रे हँसने ठागे, और हँसी के उस प्रवाह में वेदना के श्राँस, घुल-मिल «गये | की




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