हिंदी - गद्य - मीमांसा | Hindi Gadya Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( दे ) सिडनो ने भो अपनों सम्मति यहों दो है । इसो लिए गद्य लिखने को परिपाटो प्रत्येक देश में तभी पड़ी थो, जत्र मुद्रगा- यंत्रों का आविष्कार तथा प्रचार हुआ, उसके पहले कभी नहीं या बहुत कम हुग्रा । मुद्रणयंत्रों का सब से बड़ा उपयोग यह था. कि उनकी द्वारा बहुत सी प्रतिलिपियाँ तैयार हो सकती थीं, और बड़े से बड़े गदय-ग्रन्थ भी लिखे जा सकते थे तथा उनके प्रचार होने का पूरा सुभीता भी हो सकता था । यहीं पर एक बात श्रौर उल्लेख्य है । जब समाज में शिक्षित समुदाय की वृद्धि होती हैं, तभी गद्य-साह्तित्य को खपत होना सम्भव हो सकता है । अनपढ़ अधवा अधकचरे लोग भी कविता को बहुत कुछ समझ सकते हैं और उसको शीघ्र कण्ठस्थ करके उससे आनन्द प्राप्र कर सकते हैं । परन्तु गय की वाक्य-रचना को एकाएक हृदयंगम कर लेना तथा उसमें लिखे हुए किसी लम्बे लेख का भाव कंबल सुन कर ही समभक् लेना साधारण अशिन्तित पुरुष की शक्ति कं बाहर होता है । इस सिद्धान्त की परिपुष्टि पं० प्रतापनारायण मिश्र तथा अन्य कई १४ वीं शताब्दी वाले हिन्दी-लेखकों कं गद्य-लेखों से होती है । प्रतापनारायण मिश्र का गय न तो विद्वत्तापूर्ण ही था श्रौर न सर्वोच्च काटि के साहित्यिक गद्य का नमूना ही था । यद्यपि उसमें अनेक ऐसे गुण थे जो उत्तम प्रकार क॑ गय में होते हैं, और यद्यपि हिन्दी-गद्य उनका बड़ा आमारी रहेगा, तथापि शत में यही मानना पढ़ता है कि




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