हिंदी - गद्य का विकास | Hindi Gadya Ka Vikas

Hindi Gadya Ka Vikas by मोहन लाल जिज्ञासु - Mohan Lal Jigyasu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है के श में गद्य की प्रचुरता है । सामवेद तो ऋग्वेद के मंत्रों से ही बना है, उसके ताण्ड्य ब्राह्मण में गद्य पाया जाता है । इसी प्रकार अथवंवेद के गोपथ ब्राह्मण की रचना भी गय् में हुई है । कहने का अभिप्राय यह है कि झाह्मण अ्रंधथों के समय गद्य की कोई कमी नहीं रही । उदाहरण के लिये ऐेतरेय ब्राह्मण ३४।७ का जणुक गयांश तख्ियेः-- ण्तेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेश च्यवनों भागवः शायतिं सान- वमशिपिषेच तस्मादु शार्यातों सानवः समन्तं सर्वतः प्थिवी जय- न्परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे देयानां हापि सचे ग्ृहपतिरास इति ।' बाह्मणों के अन्त में दार्शनिक अअध्यायों के रूप में आरण्यक और उपनिषद्‌ हैं । इनमें झाध्या्सिक बाते का सम्भीरतापूर्वक विवेचन किया गया है । भारतवर्ष के आय: सभी दार्शनिक सम्प्रदाय ₹ बौद्धों और जनों के अतिरिक्त ) इन उपनिषदों में हो अपना आदि अस्तित्व स्वीकार करते हैं । ये तो उपनिषदों की संख्या अधिक है, लेकिन उनमें से अधिक प्रसिद्ध ये दे--ईंश, केन, कठ, प्रश्न, सुर्डक, मा एडूक्‍्य ठैत्तिरीय, ऐत्तेरेय, छांदोस्य, चृहदारण्यक और स्वेताश्वतर । इनकी रचना वेदिक-संस्कृत के अंत में हुई । श्रारण्यकों में गद्य की प्रचुरता है । ऋग्वेद के ऐतरेय अर सांस्यायन उ्मारश्यक इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । उपनिपदों के कुछ शंश तो सर्वथा गद्य में हैं और कुछ गय-पद्य मिश्रित हैं। छांदोग्य उपनिषद्‌ में गद्य के अच्छे नसने देखने को मिलते हैं । छान्दोग्य ज।२४ का एक उदाहरण देखिये-- यत्र नान्यत्‌ पश्यति नान्यच्छणोति नान्यद्‌ विजानाति तदू भूसा । अथ यत्रान्यत्‌ पश्यति अन्यच्छुणोति श्न्यद्‌ विजानयति तद्रपं यो व भ्रूमा तदनब्ठतमश्र यदल्प तन्मत्यमू ॥ इसप्रकार वरंदिक संस्कृत में संहिता, झाह्मण, श्ारण्यक श्र उप- लिषद्‌ का निर्माण हुआ । बेदिक संस्कृत की भाषा, जेसा कि ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है बहुत सीदी-साधी है । इसमें छोटे-छोटे शब्दों का प्रयोग पाया जाता है *ह” ये” 'उ”* ग्रादि श्रब्ययों का वाक्यालंकार के




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