समयसार नाटक | Samaysar Natak
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, नाटक/ Drama
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.37 MB
कुल पष्ठ :
132
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१७)
अब परंमा्थकी रिक्षा कथन ॥ संवेया ३१ सा.
वनारसी कहे भैया भव्य सुनो मेरी सीख, केहूं भांति कैसेहूके ऐस
-कान कीजिये ॥ एकहू मुहुरत मिथ्यात्वको विष्वंस ,होइ; ज्ञानको जगाय
अस हंस खोन लीजिये ॥ वाहीको विचार वाको ध्यान यह कौतूहठ,
योंही भर जनम परम रस पीजिये ॥ तनि भववासको विलास सविकार-
रूप, अत करि मोहको अन॑ंतकाल जीजिये ॥ २४ ॥
_ अब तीथेकरके देहकी स्तुति ॥ सवैया ३१ सा.
जाके देह युतिसों दसो दिशा पवित्र भई; जाके तेन आगे सब तेज-
बंत रुके हैं ॥ जाकों रूप निरखि थकित महा रूपवंत, जाके वपु वाससं
सुवास और छूके हैं ॥ जाकी दिव्यध्वनि सुनि श्रवणको सुखहोत; नाके तन
लछन अनेक आय ढूके हैं ॥ तेई निनरान जाके कहे विवहार गुण; निश्चय
निरखि शुद्ध चेतनसों चूके हैं ॥ २५ ॥
जामें बालपनों तरुनापों दद्धपनों नाहि; आयु परजंत महारूप महाबर
है ॥ बिनाही यतन ज़ञाके तनमें अनेकगुण, अतिसै विराजमान काया निर-
मल है ॥ जैसे विन पवन समुद्र अविचलरूप, तैसे जाको मन अरु आसन
अचल है ॥ ऐसे निनरान जयबंत होउ जगतमें, जाके सुमगति महा
मुकतिको फल है ॥ २६ ॥ . का
अब जिन स्वरूप यथार्थ कथन ॥ दोहा.
जिनपद नाहि शरीरको, जिनपद चेतनमांहि ।
जिनवर्णन कछु और है, यह जिनव्णन नांहि ॥ २७॥
'ए.. अब पुह्उल अर चेतनके सिन्न स्वसाव ढष्टांत ॥ सरवया. ३१ सा.
' ऊंचे ऊंचे गढ़के कांगुरे यों विराजत हैं; मानो. नम छोक गीलिवेकों
नि .
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