हमारी नाट्य परम्परा | Hamari Natya Parampara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४) १ नाटक शब्द का प्रयोग ध्ाघुनिक समय में दो सिन्न रूप में मिलता है । प्रथमेव दम नाटक का रुपक फे एक मेद के रूप में पाते है, श्रोर द्विवीय स्थान में इस माटक शब्द को रुपक का योतक दी समसाने हैं । घाघुनिक समय में नाव्य शब्द रूपक का स्थानापन्न हो गया है । नाटक के ऊपर घर कुछ विचार करने के पूर्व इसके कथानक पर ध्यान देना उचित समझ पड़ता है । संस्रूत के नाय्वाचार्यो ने नाटक के कथानक का एक सकुचित स्थल दे रखा है, घोर घद्दी संस्दत परम्परा हमें द्विन्दी नाटकों में भी कुछ मिलती है । घ्ान्न कल दिन्दी नाटकों की रचना एक दूसरे रूप में हुई है, संस्रुत्त के के श्रनुसार नारंक की कथा एक इतिहास प्रसिद्ध कघा हनी चाहिये पर प्र एम ऐसे नाटक मिलते हैं जिनतें इस पर कम ध्यान दिया ज्ञान पड़ता हैं । नाटक के पात्रों में नायक, नायिका, दूतती, इत्यादि होते हैं । जिसमें नायक पुरुष पात्नी में प्रधान होता है शौर नायिका खियो में । इन में जास्त्रीचित शुशों का दाना घ्याघश्यक है । नाटक के प्रधान उद्देश्य के प्राप्त करने के लिये थार पाँच को दाथ चटाना चाहिए । नाटककार फोा नाटक फे रचना में नाटक के प्रछुखं रस के विरोधी दुतान्तों का घणुन उसी नाटक में कदा पि न करना घाहिये ।॥ नारफ के ४ पंकों से लेकर १० धंकों तक फा समावेश हो सकता है । प्रत्येक भ्रंक का धघिस्तार कितना दाना चादिये इसके विपय में ध्ाचार्या का मत है कि नाटक की रचना यो के पूँद के भ्रप्रमाग के समान दाना चाहिये । पर झुक




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