अभ्यास योग | Abhyas Yog

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४) विद्यमान है। पर यद्द तो मानना ही पड़ेगा कि हम लोग अपने दुर्भाग्य को भी चुप-चाप बैठ कर सह लेते हैं, यह यात उचित नहीं है । पास्थात्य जातियों की तरद हमारी भोग- विलास की प्रदुत्ति भी उतनी तीव्र नहीं है। पर यद्द किस चात का परिणाम है, निर्णय करना कठिन है । इसमें तो कुछ भी सन्देह' नहीं कि भोग-लालसा फे चस होकर घिपय- भोग की इच्छा हम भी करते हैं और इसके मिलने पर सुख का अद्ुमव करते हैं. । मन का सन्तीप धास्तव में दैववाद पर ही निर्भर नहीं रहता। मनुप्य के भीतर जव कोई श्ाकांक्षा जाग उठती है तो उसे निशत्त करने के केवल दो उपाय हैं। पक तो उप- मोग्य विपय का भोग करना ओर दूसरे उसके क्षण-स्था यित्व और असार परिणाम पर विचार करके उससे निवत्त रहना । यहद दूसरा मार्ग ही मारतवर्ष के ऋषियों का मार्ग है। स्थायी रूप से भोग फी वासना इसीसे निवुत्त दो सकती है. । पह्लि उपाय से यासना की स्णिक ठप्ति होने पर भी उसका कोई स्थायी फल नहीं मिलता । इसीलिये भारतीय ऋषियों का यह उपदेश है कि मनचाहे उपमोग्य वस्तुओं के पीछे दौड़ कर जीवन को व्यर्थ करने से कोई लाभ नहीं । भोग्य चस्तु का यथार्थ-रवरूप समझ कर उससे निवृत्त होना ही घुद्धिमानी है ।




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