समाज के स्तम्भ | Samaj Ke Stambh

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Samaj Ke Stambh by हेनरिक इब्सन - Henrick Ibsn

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५९ हिल्‍्मा--क्षमा कीजिये मिस्टर रारछुन्त मिसेज़ वर्निक--उस समय जब कि सब कुछ सुन्दर और शान्त था दर जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है मुझे कोइ भी विरोध नहीं उनके इस कंमकट के मोल लेने मे । कुछ भी हो इसमें कुछ मनोरंजन तो होगा । रारछुन्त-मैं समकता हूँ ऐसे मनोरंजन के विना भी हम लोगो का काम चल सकता है | हिल्‍्मा--यह तो अपनी तवियत पर निभर है । कुछ लोगो का स्वभाव ऐसा होता है कि वे कभी कभी युद्ध की भी इच्छा करते है । लेकिन दुर्भाग्य से देहात की जिन्दगी में वैसी वात बहुत नहीं मिलती और सब के पास ऐसी शक्ति नही कि-- जिस पुस्तक को रार्लुन्त पढ रहा था. उसके पन्ने इयर उधर उलटता हे समाज की सेविका स्त्री । ऐ यह क्या ऊटपटांग है ? सिसेज वर्तिक--हिल्‍मा ऐसी बात न करो । यह निश्चय दे कि तुमने यह किताब नहीं पढ़ी हिर्मा--नही और इसे पढ़ने की इच्छा भी में नहीं करता । मिसेज वर्निक -शायद आज तुम्हारी तबियत अच्छी नही है । अच्छी नहीं - मिसेज बनिंक--शायद कल रत नींद नही आई | हिल्‍्मा--नहीं सोता तो रहा लेकिन बड़ी घुरी तरह । कल शाम को स्वास्थ्य के लिये में घूमने चला गया था । क्लब पहुँच कर घूमना समाप्त कर दिया । इसके वाद ध्रूव-यात्रा की एक किताब पढ़ता रहा । प्रकृति के साथ जो युद्ध कर रहे है उन मनुष्यों के साहसपूणु कार्यों मे कोई ऐसी वात है जो बल प्रदान करती है।




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