भारतीय नाट्य साहित्य | Bhartiya Natya Sahitya

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Bhartiya Natya Sahitya by डॉ नागेन्द्र - Dr. Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“7. नादुनसिद्धात्त [१ सामाजिक प्रवृत्ति अपने विकास का पु क्षेत्र प्रात करती हैं। घौपंप्रणं (नाटक) के भपेक्ञाकृत निम्न प्रकारों में समवकार, डिस, व्यायोग, झंक तथा ईहामूग हें भौर सामाजिक वर्ग के लघुतर प्रकारों में प्रह्न, माण तया वीयि हैं । शीर्यात्मक बर्गे देवता श्रयवा महाकाव्य-नायकों के कार्यों, युद्धों तया उनके परिणामों का चित्रण करता है, जिसके प्रकार सम्मवतः भव भी जावा भौर बाली में नाटकीय बाड़ियों में भ्रवशिष्ट है । सामाजिक वर्ष सामान्य मनुष्यों के जीवन तथा प्रेम-्कारयों का चित्रण करता है । पहला हमारे समक्ष देवी उदाहरण प्रस्तुत करता है जब कि दूसरा विदव के लिए एक दपेंण का कार्य करता है। संस्कृत-नाटक॑के प्रकारों का भ्रन्ततः शौर्यार्मक तथा सामाजिक नामक दो विशेषतामों के भ्रनुसार वर्गीकरण उसे युनानी रंगमंच के किचितू समीप ला देता है, जिसके भासदी (टूर जड़ी) तथा कामदी (कॉमेडी) सामक दो प्रकार हैं। परिचम के प्राच्य- विदों ने यह प्रतिपादित करते का प्रयास किया है कि संस्कृत-नाटक का विकास मुनानी प्रभाव के भघोन हुपा था । युनानी प्रभाद का प्राउयं ईसा-पूब प्रथम शताब्दी में था, विन्तु, जैसा कि हमने ऊपर देखा है, सर्कृत-नाटर का विकास बहुत पहले हो चुका था । भारतीय रंगमंच पर माट्य-रुपों की विविधता पहले से ही थी, भी (उस समय) सुनान में भनुपलब्घ थी । “न्रासदी' युनानी नाटकों का सर्वोत्कृष्ट रूप था भौर संस्कृत-रंगमच पर मूनानी भ्नासदी जैसी किसी वस्तु का कदापि विकास नहीं हुआ । चस्तुतः इसके सिद्धान्त रंगमंच पर किसी की मृत्यु भथवा मृत्यु के साथ किसी नाटक के भन्त का निपेध करते थे । संस्कृत-रंगमंच में यूनानी रंगमच के समान कोई गायक- चून्द नदी होता था भौर यूनानी सिद्धान्त के भनुसार भनिवायं संकलन-प के सिद्धान्त से देश-काल में के संकलन मारतीय सिद्धान्त ठया व्यवहार द्वारा पूणं निदिचन्त होकर छोड़ दिए गए थे । भारतीय माटक पुनानी नाटक को भपेक्षा भत्यघिक विशाल भी था । यूनानी रंगमंच का भारतीय रंगमंत्र के विविध रूपों से--जिनका भरत ने कुछ विशदता से वर्णन किया है--फोई साम्य नहीं है । भरत के--जिनका प्रस्थ भरस्तू के 'पोय टिवस' हवा रिटॉसिस' के सम्मिलित रुप से भी भ्रधिक पूर्ण है--पू्णं रद-सिद्धान्त के समझ, भास, करुणा तथा विरेचन के यूनानी सिद्धान्त हेय से हैं । परदे के लिए प्रयुक्त 'यवनिका दाब्द से तथा रंगमंच पर भाने वाले राजकीय भनुचरों में यवन स्त्रियों को उपस्थिति से भी कुछ प्रमाण खोजे गए हैं। (इनमें से) भन्तिम तो नितास्त व्यर्थ है । यदि हमारे पास पढें के लिए “पटी, 'तिरस्करिणी', 'प्रतिशिरा” तथा यहाँ तक कि 'यमनिका' झादि देशीय यपा युत्तियुक्त नाम न होते तो प्रथम युक्ति में कुछ शक्ति हो सकती थी । इन




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