भारतीय साहित्य कोश | Bhartiya Sahitya Kosh

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Bhartiya Sahitya Kosh by डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अकौयानाद (अ० पारि०) असमीया ही नहीं अपितु किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में सबसे पहले श्री शकरदेव (दे०) ने नाटकों का प्रवर्तन किया था। इन्होंने असम के वाहर के प्रदेशों में रामलीला, यात्रा आदि का अभिनय देखकर उन्हें प्रचार के लिए अधिक प्रभावशाली समझा था । दूसरी ओर असम प्रदेश में 'ओजापाली' (दे०) का अभिनय होता ही था । इसी को सस्कृत-नाटकों के अनुरूप परिमाजित कर इन्होंने अकीयानाट लिखे । अकीयानाटों की ये विशेषताएँ है- (1) सुभ्रघार की प्रधातता, (2) काव्यारमक मीत-इलोक और पयार छदों का प्रयोग, (3) ब्रजावली अथवा ब्रजबुलि भाषा का प्रयोग, और (4) लयात्मक गद्य का व्यवहार । सूत्रघार का प्रयोग सरकृत नाटकों जैसा ही है, कितु इन्होंने दशकों के अनुरूप कुछ परिवर्तन किये है । यहाँ सुनधघार गायक, नतेंक, परिस्थितियों का व्याख्याता और अभिनय सचालय भी होता है। वह ददेक और पात्रों का मध्यस्थ होता है। आधुनिक नाट्यकार मचीय निर्देशों द्वारा जो कार्य करता है, वह सूत्रधार स्वय करता है। अकीयानाट में तीन प्रकार के गीती का प्रयोग होता है (1) भव्तिप्रघान गंभीर भटिमा (दे०) गीत (2) कथा के अगीभूत राग- ताल युवत अनुभूतिशील गीत, (3 ) वर्णनान्मक पयार छद । झकरदेव ने ये अकीयानाट लिखे थे --'पत्नीश्रसाद (देव), 'कालियदमन', 'केलिगीपाल', सरुक्मिणी हरण', 'पारिजात- हरण नाट' (दे०) और 'राम विजय नाद (दे०) । इनके शिष्य माघवदेव (दे०) ने भी अकीयानाट लिखे थे । अप (प्रा० कु०) जैन धर्म के वेद स्थानीय सर्वाधिक प्रामाणिक आगम (दे० जैन आगम) ग्रथ गअग' कहताते हैं । इनको द्वादशाग और गणिपिटक के नाम से भी अभिहिरत किया जाता है। इनकी भाषा अर्धमागधी, आर्प या प्राचीन प्राइत विज जों पद मपस्तीय कर साहित्य-कोदा मानी जाती है। यह महावीर (दे०)-वाणी है और सु्र्मा श्रमृति गणघर (दे०) -प्रणीत मानी जाती है । इनकी सरया 12 है जिसमे 14 पर्वो के विच्छिन्त भाग से निर्मित दिट्विवाद भी सम्मिलित है कितु इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है । इन अगो में गद्य, पद्य और मिश्रित सभी दीलियाँ प्रयुक्त हुई है । गद्य की अपेक्षा पद्य मे कलात्मकता अधिक पाई जाती है 1 12 अग ये हैं-- (1) “आयारग' (आचाराग) इसके तीन भाग है--प्रथम श्ुतस्कथ भे जैन साधुओ के लिए कठोर लियम बतलाये गये हैं। दूसरे भाग चूल (परिशिष्ट) के प्रथम दो भागों में भिक्षाटन इत्यादि के नियम है और तीसरे भाग मे महावीर स्वामी की जीवनचर्यी है। (2) 'सूयंगडग' (सु्झृताग) यह सिद्धांत निरूपण परक अग है । इसमें विभिन्‍न पाखडियों और नास्तिको के विभिन्‍न वादों का खडन किया गया है और धर्म मार्ग मे आनेवाले विभिन्न विघ्लो का निरूपण कर उनसे दूर रहते का उपदेश दिया गया है । (3) 'ठाणाग' (स्थानाग) और (4) 'समवायाग' इन दोनो अगो मे संख्या के आधार पर उपदेश दिये गये हैं--गणाग में ! से 10 तक सख्याएँ हैं और समवायाग मे सख्या बहुत अधिक बढ जाती है। (5) “भगवती वियाह- पन्नहिं' (व्याख्या प्रज्नप्ति ) कही कही इसे केवल भगवती नाम से अभिहित किया जाता है। कुछ तो प्रश्नोत्तर रूप मे और कुछ प्रवचन (इतिहास-सवाद ) वे रूप में लिखा हुआ यह ग्रथ सिंद्धात प्रतिपादत, महावीर स्वामी की जीवनचर्या इतिहास, पुराण, कथा और देश वर्णन इत्यादि की दृष्टि से जैन अगो मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसमें कवि भी पर्याप्त मात्रा में है । (6) नया घम्म कहाओ' (ज्ञात घर्मकथा ) इसमे सभी प्रकार की छोटी-बडी, कथाओं, यात्रा-विवरणो, काल्पनिक कथाओ के माध्यम से सयम, तप इत्यादि का उपदेश दिया गया है। (7) “'उपासक दसाओं' (उपासव दशा) 1 (8) 'अतगउदसाओ' (अत- कुददशा) और (9 *अणुत्तरोववायदसाओ (अनुत्तरोप-




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