सुदर्शन नाटक | Sudarshan Natak
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, नाटक/ Drama
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.79 MB
कुल पष्ठ :
116
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(९३)
की रा की गेट ऊन और और अर ऑन और अं ऑन उन अं अं अर मे बा टी न
घ्रुणा करने लगे हैं शोर श्राप उसे स्वप्न में थी देखने की
इच्छा नहीं करते है; क्यो ! मित्र ठीव है न !
सुदशेन--लीजिए ! द्ाप तो झपना ही राग झलापने
लगे | मैं कह रहा हूँ, कि तय से ही मेरे हृदय में घोर वेदना
हो रही है ।
देवदर--( श्राध्र्य से ) पे ! वेदना ! ओर हृदय में !
क्यों? क्या उस ने श्राप के ऊपर कुछ आघात किया हे ?
श्राप ऐसे सउजन सरल व्यक्ति के हृदय पर ! तब तो चह
श्वश्य कोई चड़ी निष्ठुर हृदया ज्ञान पड़ती है, जो उस ने
पाप के ठीक हृदय ही पर लब््य किया । कहां ? देखू कोई
विशेष चोट तो नहीं श्राई ।
सुदर्शुन--मित्र! झाप क्यों मेरे हृदय को वेदना को
इस प्रकार छधिक सड़का रहे हैं। सचमुच में उस की मनों
मोहिनी मूर्ति पर तभी से सुग्थ हो गया हूँ!
देवढच--कपा कहा ! झाप सुग्ध हो गए हैँ, उस की
उस लय कला पर जिससे उसने श्राप के विट्कुल हृदय
पर निशाना लगाया । क्यों न हो अ्राखिर निशाना भी तो श-
न्यूक लगा है। तब तो शाप उसे अवश्य कुछ पारितोपक देंगे |
सुदशेन--प्रिंप सित्र! शाप मेरी बार्तो को क्यों विनोद
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