सुदर्शन नाटक | Sudarshan Natak

Sudarshan Natak by मूलचंद्र जैन - Moolchandra Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about मूलचंद्र जैन - Moolchandra Jain

Add Infomation AboutMoolchandra Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
(९३) की रा की गेट ऊन और और अर ऑन और अं ऑन उन अं अं अर मे बा टी न घ्रुणा करने लगे हैं शोर श्राप उसे स्वप्न में थी देखने की इच्छा नहीं करते है; क्यो ! मित्र ठीव है न ! सुदशेन--लीजिए ! द्ाप तो झपना ही राग झलापने लगे | मैं कह रहा हूँ, कि तय से ही मेरे हृदय में घोर वेदना हो रही है । देवदर--( श्राध्र्य से ) पे ! वेदना ! ओर हृदय में ! क्यों? क्या उस ने श्राप के ऊपर कुछ आघात किया हे ? श्राप ऐसे सउजन सरल व्यक्ति के हृदय पर ! तब तो चह श्वश्य कोई चड़ी निष्ठुर हृदया ज्ञान पड़ती है, जो उस ने पाप के ठीक हृदय ही पर लब््य किया । कहां ? देखू कोई विशेष चोट तो नहीं श्राई । सुदर्शुन--मित्र! झाप क्यों मेरे हृदय को वेदना को इस प्रकार छधिक सड़का रहे हैं। सचमुच में उस की मनों मोहिनी मूर्ति पर तभी से सुग्थ हो गया हूँ! देवढच--कपा कहा ! झाप सुग्ध हो गए हैँ, उस की उस लय कला पर जिससे उसने श्राप के विट्कुल हृदय पर निशाना लगाया । क्यों न हो अ्राखिर निशाना भी तो श- न्यूक लगा है। तब तो शाप उसे अवश्य कुछ पारितोपक देंगे | सुदशेन--प्रिंप सित्र! शाप मेरी बार्तो को क्यों विनोद




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now