कर्म्म - व्यवस्था | Karma - Vyavastha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.82 MB
कुल पष्ठ :
90
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(९५ )
संकल्प रूपों और उनके उत्पत्ति कर्ताओं में एक अहश्य .
गुढ़ सम्बन्ध भी होता है, जिस के कारण वह अपने २ उत्पत्ति
कर्त्ताओं के चित्तमें भाव डाल कर, अपने पनर्जन्म के संस्कार जा-
गते हैं, अर्थात् उन के चित्तमें विद्यमान हो कर उन को अपने ही
चिन्तन करने, ओर निज भावानुसार बर्ताव करने की प्रेरणा
करते हैं। पुनराभ्यास से जब कोई संकल्प दृढ हो जाता है, तो
चित्त में उसके चिन्तनका निश्चित भाव उत्पन्न हो जाता है,मानो
पक ऐसी प्रणाठी बनजानी है, कि जिस में चिन्तन दाक्ति का घ्र-
वाह बिना रोक निर्यत्न स्वत: सिद्ध बहिने छगता है. ओर इस से
मानसिक उन्नति में सहायता मिढती हे यदि भाव श्रेष्ट और
अत्युत्तम हो;अन्यथा यह भाव निकृष्ट होने क॑ कारण महा विघन-
कारी और दुःखदाईं हुआ करता हे ॥
स्वभावों के बननेकी इस रीति पर कुछ थोडा सा विचार करना
यहां पर उचित जान पडता है, क्योंकि इस से कर्मी की गहन
गति सक्ष्म परिमाण से भठी भान्ति प्रकट होती है । उदाहरण
की रीति से कल्पना करलों कि एक ऐसा सब्जी भूत चित्त हे,
कि जिस में भूत काल के कर्मे का कोई संस्कार नहीं है। एसे
चित्त का सिठना यद्यपि असम्भव है, तथापि कडब्पित उदाहरण
हमारा उद्देरय भलीभांति सिद्ध होजावेगा । ऐसा चित्त माना
जासक्ता हे, जो कि, संपर्ण स्वतन्त्रता से निज इच्छानुसार चिंतन
करके एक संकरूपरूप उत्पन्न करता है। इसके अनन्तर उसी
संकष्प को बारम्बार रटने से चिन्तन की एक निद्चित बत्ति
उत्पन्न हो जाती है। एसी ब्रत्ति के उत्पन्न होने पर फिर चित
स्वयमेव अजानता से ही, उस संकल्प के चिन्तन में ठग जाया
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