भारतीय अर्थ व्यवस्था | Bharatiya Arth Vyavastha

Bharatiya Arth Vyavastha by रूद्र दत्त -Rudra Datt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ आर्थिक संवृद्धि एवं विकास [१७9 9,१9.119 জেটি ছা) ৮50) 1 आर्विक सवृद्धि एव आर्थिक विकास (९०7०४ 67०0वी) जड़ ছ:০০7922)6 100৯ 81017076101) आर्थिक सवृद्धि (६९७७४७७४८ 570७७) से हमार अभिप्राय रष्टय आय के विस्तार से है। अत आर्थिक सवृद्धि में केवल इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि क्‍या किसी कालाबधि में इससे पहले के काल को तुलना में मात्रा की दृष्टि से अधिक उत्पादन हो रहा है या नहीं। दूसरे शब्दों में भआाधिक सवृद्धि एक परिमाणात्मफ सकल्पता (0एशााए8 006 ००८९7) है। इसके विरुद्ध आर्थिक विकास अपेक्षाकृत अधिक व्यापक धारणा है। आर्थिक विफास का क्षेत्र आर्थिक सवृद्धि से कहीं अधिक है। चाहे कई अर्थशास्त्री आर्थिक सबृद्धि और आर्थिक विकास को एक दूसरे कै पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं परन्तु हाल हो के आर्थिक साहित्य भं इन दो धारणाम के बरे मे स्पष्टीकरण हुआ है। শাক ক্ষিশুলনর্ণয (0080169 ৮ 11৩1৩5৩12৩0) ने इस सम्बन्ध मे उल्लेख किया है. आर्थिक सवृद्धि का अर्थ अधिक उत्पादन से है जबकि आर्थिक विकास से अभिप्राय अधिक उत्पादन के अविरिक्त दकनीकी एव सस्थानत्मक व्यवस्था (त्र॥(ए1०वक ८८०78 ९४९॥४) मे हुए परिवर्तनों से शरी है जिनके कारण यह उत्पाद (00७४ निर्मित एव वित्तरितं किया जाता है! आर्थिक सर्वाद्ध मे न कैचल अधिक माजरा गे आदाने (आ) के कारण अधिक उत्पादन को शामिल किया जाता है बल्कि इसमे प्रति इकाई आदान के बदले अधिक उत्पादन का सप्रावेश भी है अर्थात्‌ आर्थिक वृद्धि कौ पारणा मे उत्पादन मे समय के साथ होने चाली अधिक कार्यकुशलता को शामिल किया जाता है। विकास की धारणा दशमे कही विस्तृत ठे! इसमे उत्पादन कौ सरचना (৩৩710950100 ঈ তন আজ নবি ओर केत्रहुसार आदम ক আমন (11০08070651 99 ४०७०३) में परिवर्तन को भो शामिल किया जाता है। अत आर्थिक विकास के 1 বিনা आर्थिक सवृद्धि तो सम्भवे है पस्नु आर्थिक सवृद्धि के जिना आर्थिक षिकास सम्भव नहीं क्योकि तकनीकी एव सस्यानात्पक व्यवष्या ये परिवर्तये को उदेश्य राष्टीय आय से प्राप्त वृद्धि को विभिन्‍न क्षेत्रों और जनसख्या के विभिन्‍न वर्षो में सापेक्ष अधिक न्यायोचित रूप मे बाटना है। जब तक 'कोई अर्थव्यवस्था अपनी निर्वाह आवश्यकताओं से अधिक উহা नहीं करती तब तक वह देश की जनसख्या के जोबन स्तर को उन्नत करने ओर्‌ उसे अधिकं न्यायपूर्ण वितरण उपलन्ध्‌ कराने मेँ सफल नही हो सकती जिते कि जनसामान्य कौ वास्तविक आय मे वृद्धि हो सके। आर्थिक विकास की धारणा कौ व्याख्या किसी समाज मे विभिल नीति उद्दशयो के रूप मे ही करती सम्भव है) अत इस घारणा का आधार समाज द्वाग् स्वीकृत वे मूल्य (५३४०७) हैं जिनके आधार पर समाज के तिभाण का सकल्‍्प किप) मय) जे) इत दृष्टि से आर्थिक विकास गुणात्मक रूप में आर्थिक सवृद्धि से भिन है। आधिक विकाम कौ भिस परिभाषा को सवसे अधिक स्वीकृति प्रप्त ठो सकती हे वह प्रोफेसर जो एम मेयर के अनुमा इस प्रकार है “आर्थिक विकास की परिभाषा एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में की जा सकती है जिसके परिणामस्वरूप कोई देश एक लम्बी कालावभि मे अपनी वास्तविक প্রতি व्यचि आय मे वृद्धि करता दै बरतो कि परम निर्घनता रेखा! (५४४०५1९ ४०१श +) 176) के मीच एहने वासी जनसख्या मे वृद्धि न हो और आय का वितरण और अधिक असमाव न हो जाश।ए इस परिभाषा से आर्थिक विकास के बोरे में जो बाते सुब्यक्त होतो हैं वे ये हैं 1 आर्थिक विकास एक प्रक्रिया (770०६55) है-इस बाह प बल देना आवश्यक है कि आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे कुछ शक्तियाँ जो एक दूसरे से सम्बन्धित हैं कारण और कार्य के रूप में क्रियाशील होती हैं। अत हमे




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