गीता का कर्मयोग | Gita Ka Karm Yog
श्रेणी : धार्मिक / Religious, हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.9 MB
कुल पष्ठ :
377
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[थ
किये जाते है; तब “योग” अपने लिये होता है । कारण कि दूसरोके
लिये ही सब कम कानेसे कर्मोका प्रवाह संसारकी ओर हो
जाता है, जिससे संसार ( शरीर )से माना हुआ सम्बन्ध टूट जाता
है और खरूपके साथ अपनी जो खत:सिद्ध एकता है, उसका
अनुभव हो जाता है। इस एकताका नाम 'योग” है । परन्तु
जत्र अपने लिये कम किये जाते हैं, तब “योग” नहीं होता, प्रत्युत
भोग? होता है । भोगसे संपार ( शरीर का सम्बन्ध दृढ होता है ।
स्थूठशरी(की स्थूलसपतारके साथ, सूकमशरीरकी सक्मसंसारके
साथ और कारणशरीएकी कारणसंपारके साथ खतःसिद्ध एकता
है; इसलिये स्थूलन्रीरसे होनेबाढो 'क्रियाए, सूक्मशरीरसे होनेबाला
चिन्तन” और कारणशरीरसे होनेवाली “स्थिरता” ( समाधि )#---
तीनोका ही सम्बन्ध संतारके साथ है; अपने साथ नहीं । इसल्यि
इन तीनोको संसारकी सेताके लिये ही करना है, अपने छिये नहीं ।
अपना हित दूसरोके लिये कम करनेसे होता है, अपने लिये
कम करनेसे नहीं, क्योकि दूसरोके हितमें ही अपना हित निहित है |
२ जवतक प्रकृतिका सम्बन्ध रदता है; तब्रतक दो अवस्थाएँ: रहती
हैं, क्योंकि परिवतनगील होनेसे प्रकृति कभी एकरूप नहीं रहती ।
अतएव समाधि और व्युत्यान--ये दोनों अवस्थाएँ प्रकृतिके सम्बन्वसे
ही होती हैं । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर सहज समाधि अथवा
सददजावस्था होती है; जिससे कभी व्युत्थान नहीं होता । इसल्यि
सहजावस्थाकों सबसे उत्तम कहा गया है---
उत्तमा .... सहजावस्था ... मध्यमा.. ध्यानघारणा )
कनिष्ठा गाख्रचिन्ता. च.. तीर्थयााध्घमाइघमा ||
गीं० क० वब--
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