गीता का कर्मयोग | Gita Ka Karm Yog

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[थ किये जाते है; तब “योग” अपने लिये होता है । कारण कि दूसरोके लिये ही सब कम कानेसे कर्मोका प्रवाह संसारकी ओर हो जाता है, जिससे संसार ( शरीर )से माना हुआ सम्बन्ध टूट जाता है और खरूपके साथ अपनी जो खत:सिद्ध एकता है, उसका अनुभव हो जाता है। इस एकताका नाम 'योग” है । परन्तु जत्र अपने लिये कम किये जाते हैं, तब “योग” नहीं होता, प्रत्युत भोग? होता है । भोगसे संपार ( शरीर का सम्बन्ध दृढ होता है । स्थूठशरी(की स्थूलसपतारके साथ, सूकमशरीरकी सक्मसंसारके साथ और कारणशरीएकी कारणसंपारके साथ खतःसिद्ध एकता है; इसलिये स्थूलन्रीरसे होनेबाढो 'क्रियाए, सूक्मशरीरसे होनेबाला चिन्तन” और कारणशरीरसे होनेवाली “स्थिरता” ( समाधि )#--- तीनोका ही सम्बन्ध संतारके साथ है; अपने साथ नहीं । इसल्यि इन तीनोको संसारकी सेताके लिये ही करना है, अपने छिये नहीं । अपना हित दूसरोके लिये कम करनेसे होता है, अपने लिये कम करनेसे नहीं, क्योकि दूसरोके हितमें ही अपना हित निहित है | २ जवतक प्रकृतिका सम्बन्ध रदता है; तब्रतक दो अवस्थाएँ: रहती हैं, क्योंकि परिवतनगील होनेसे प्रकृति कभी एकरूप नहीं रहती । अतएव समाधि और व्युत्यान--ये दोनों अवस्थाएँ प्रकृतिके सम्बन्वसे ही होती हैं । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर सहज समाधि अथवा सददजावस्था होती है; जिससे कभी व्युत्थान नहीं होता । इसल्यि सहजावस्थाकों सबसे उत्तम कहा गया है--- उत्तमा .... सहजावस्था ... मध्यमा.. ध्यानघारणा ) कनिष्ठा गाख्रचिन्ता. च.. तीर्थयााध्घमाइघमा || गीं० क० वब--




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