सरल अध्यात्मिक प्रवचन | Saral Adhyatmik Pravachan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12.39 MB
कुल पष्ठ :
210
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सरल श्राध्याहि्मिक प्रवचन प्र भौर वह कमंविपाक है तो वह मेरा स्वरूप नही है। मै तो एक टंकोत्कीर्णबत् ज्ञानस्वभावी हु । सुझमे जो रागद्ेष क्रोधादिक विभाव हो रहे है थे पुद्गल कमंके उदयसे निष्पन है तब ही तो इतना तक कहा जाँता कि ये पौदुगलिक है उनको देखें तो किसलिए देखें ? इससे हमे यह शिक्षा मिली कि यह मैं नही हू । यह पुदुगलकर्मका ठाठ है । इससे मैं निराला एक भ्रनादि भ्रचस्त शुद्ध चैतन्यस्वरूप हू । उस व्यवहारनयके प्रयोगसे भी जान सकते । मैं ज्ञान- मात्र हूं मैं क्रोघादिक भाव नहीं क्योकि ये पुदुगलकर्मके विपाक है । इस तरह जन देखा तो इस स्वभाव हृष्टिके प्रयोगके लिए हमारा ज्ञान बना । तो हम नयोका नाना प्रकारसे ज्ञान करके प्रयास करें स्वभाव हष्टिको निहारनेका । ५० श्रात्मशान्तिके प्र्थे ज्ञानसुंधारको आवश्यकता--देखो ज्ञानकी बदलसे बहुत बदल हो जाती है । जैसे किसी बालककों जब हुचकी श्राती है तो कुछ बालक क्या उपाय करते है कि कोई ऐसी बात उसके प्रति कह देते है कि वह सोचनेमे लग जाता है । कोई श्रपराध लगा दिया कोई श्रौर गड़बड़ बात कह दी तो उसका शानोपयोग बदल जाता है श्रौर उस की हुचकी बन्द हो जाती है । ज्ञानकी बदलका लोकमे भी बडा प्रभाव देखा जाता है श्रगर श्रध्पात्म बदल जाय तो फिर उसके प्रभावका तो कहना ही क्या है । तो हमे स्वभावदष्टिके लिए प्रयास करना है । एक दृष्टा्त लो--यंसुना नदीमे रहने वाला कोई कछुंवा श्रपनी चोंच को पानीसे बाहर निकालकर तैर रहा था । उसकी चोषको चोटनेके लिए सैकड़ों पक्षी उस पर मंडरा रहे थे । वह कछुवा इधर उधर भगता फिरता था श्रौर दुंपखी होता फिरता था 1 पर प्ररे कछुवे तू क्यो व्यर्थमे दुखी होती फिरता है । श्ररे तेरे पास तो ऐसी कला है कि श्रगर उसका उपयोग कर ले तो तेरे सारे दुःख तुरन्त ही समाप्त हो नायें । मानो कछुवा पु बैठे कि बताश्रो वह क्या कला है ? तो कहेंगे कि ग्रे तु ८ १० शंगुल पानीमे जरा डूब तो जा बस तेरे सारे संकट खतम । फिर तो हजारो लाखों कितने ही पक्षी तेरा कुछ बिगाड न कर सकंगे ठोक यही बात अपने श्रापमे देखिये-हम ज्ञानहस है ज्ञानसागरमे ही रहते हैं ज्ञान ही ज्ञान भेरा स्वरूप है । ज्ञानमे ही हम बसते हैं । इतना भी भेद क्यों करें ? ज्ञान ही ज्ञान रूप हैं हम । तो ऐसे ज्ञानरूप होकर ज्ञानसरोवर होकर हमने क्या किया है ? उपयोगकी वोचकों इस ज्ञानसागरसे बहिर निकाल रखां है मायने पर-वस्तुवोमे हम नेह लगाये हैं ध्येय लगाये हैं ये ही मेरे प्राण हैं ये ही मेरे सर्वस्व है इनसे मेरेको सुख होगा इनसे मेरेको मगल श्रानन्द है इनसे मेरा जीवन है । कितनी ही बातें सोच रहे है । मान प्रतिष्ठा श्रादिक श्रनेक बातोमे यह उपयोगकी वोच लग रही है । जिसने श्रपने उपयोगकी चोचको बाहर निकाल रखा है जो परंद्रव्योगे फसाव रखे है उसे हजारो सकट श्रायेंगे ही । मित्र लोग सतायें राजा सताये चोर
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