भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण | Bhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15.73 MB
कुल पष्ठ :
454
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| पन्द्रह
श्रीकृष्ण भागवत धर्म या. वैष्णव सम्प्रदाय के पुरस्कर्त्ता हैं । करीव दो
ढाई हजार वर्पों से भागवत धरम भौर विष्णु पुजा का प्रचार भारत मे निरन्तर
दिखाई देता है । श्रीकृष्ण भक्ति के अनेक सम्प्रदाय प्रवत्तित है । करोडो
व्यक्ति श्रीकृष्ण की पूजा करते है। शभागवतधर्म वेष्णवसस्प्रदाय अहिसा
प्रधान है, इघर बहिसा जन धर्म का सबसे बडा सिद्धान्त है ही । इस तरह
भगवान अरिप्टनेमि और कृष्ण के मन्तव्य वहुत कुछ मिलते-जुलते हैं ।
यह दोनो महापुरुषों के घनिष्ठ सम्बन्ध ,का प्रबल प्रमाण है । श्रीकृष्ण को
हुए पाच हचार से कुछ वर्ष अधिक हुए है । अत जन मान्यता अरिष्टनेमि
के समय सम्बन्धी विचारणीय बन जाती है । क्योकि दोनो समकालीन व्यक्ति
थे तो उनका ममय भी एक ही होना चाहिए |
करीब 3०-३४ वर्प पूर्व, जैन आागमादि ग्रन्थो मे श्रीकृष्ण का जो महत्व-
पूर्ण चरित्र मिलता है उसकी ओर मेरा ध्यान गया और मैंने एक शोधपुर्ण
लेख थान्तिनिकेतन की हिन्दी विश्वभारती पत्रिका मे “जैन आगमो में
श्रीकृष्ण के नाम से प्रकाशित करवाया जिससे जैनेतर विद्वानों का भी
श्रीकृष्ण सम्बन्धी जनगन्थोक्त सामग्री की ओर ध्यान आर्कापित हो सके ।
उसके कुछ वर्प वाद माननीय विद्वान डा० वासुदेवशरण जी भमग्रवाल के
अनुरोध से उस लेख मे कुछ और परिवर्तन भौर परिवर्ध॑न करके श्री कन्हैया-
लाल पोह्दार अभिनन्दन ग्रत्थ में मैंने अपना निवन्ध छपवाया । तदनन्तर
श्रीचन्दजी रामपुरिया की एक स्वतन्त्र लघु पुस्तिका तेरापथी महासभा
कलकत्ता से प्रकाशित हुई । इस विपय पर सबसे महत्वपूर्ण कार्य श्रीदेवेन्द्र
मुनि जी ने प्रस्तुत ग्रन्थ के रूप में सम्पन्न किया है । उन्होंने जैन सामग्री के
भत्तिरिक्त वौद्ध गौर पौराणिक सामग्री का भी उपयोग करके श्रीकृष्ण का
पठनीय जीवन चरित्र इस ग्रन्थ मे सकलित किया है । अत. प्रस्तुत गन्थ का
महत्व निविवाद है ।
उन्होंने इस ग़न्थ के प्रकाशन से पूर्व इसकी पाण्डूलिपि सुझे अवलोकनाथे
भिजवादी थी भर मैने कुछ सशोधन व सुचनाएँ उन्हे लिख भेजी थी ।
जिनका उपयोग उन्होंने अपनी पाण्डुलिपि मे कर लिया है । फिर भी कुछ
वाते सशोधनोय रह गयी है उनकी थोडी-सी चर्चा कर देना यहा आवश्यक
समझता हैं ।
(१) प्रृप्ठ ६१ मे ऋगवेद मे *अरिष्टनेमि' शब्द चार वार प्रयुक्त हुआ
है । वह भगवान अरिष्टनेमि के लिए आया है, लिखा गया है। पर मेरी
राय मे वहाँ के अरिष्टनेमि शब्द का अथें अन्य ही होना चाहिए |
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