मूत्र के रोग | Mutra Ke Rog

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Mutra Ke Rog by भास्कर गोविन्द घाणेकर - Bhaskar Govind Ghanekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 त्रोत्पत्ति जद, सूत्रोतपत्ति विज्ञान हर उत्सजेक संस्थान--+मारीर घ्नेक घातुसों के समयोग से चना है अर उनके सहयोग से चलता हैं । शरीर का प्रत्येक घातु श्रपनी झपनी झुठ न हुए विशेषता रउता छ ब्योर स्वास्व्यरक्ता की दृष्टि से शरीर में प्रत्येक धातु की धावस्यकता छोती £ै। तथापि तुलनात्मक दृष्टि से रच जी सबसे महत्व का घातु है । यदद महत्व उसके उचित भौतिक युण और रसायनिक संगठन के स्वयं शोर शुद्धता पर निर्भर दोता है। रक्त में श्रतिचण व्माह्ार समचर्त ( [0001 [डा 9 से प्रनेक पोषक तथा चिपेले द्रव्य वरारर श्याते रहते है। फिर भी स्वस्थावस्वा में उसके संगठन में नगण्य ध्न्तर पढ़ता है। इसका कारण यू टैप कि स्वास्थ्यरक्ता की दृष्टि से रक्त का संगठन बनाये रउने के लिए शरीर में कक, स्दचा, फुफ्फुस इस्यादि झंगों फा एक उत्सजंक्र संस्थान ( सपा ए शत (छाए त रक्‍्सखा गया हैं जिसके द्वारा रक्तगत दिपंले डच्य पानी के साथ शरीर के घाहर उत्सर्गित किये जाते है । उत्सर्जक संस्थान के 'घंगों में फुप्फुस का कार्य केवल रक्त की स्वाभा- चिक प्रतिक्रिया बनाये रखने का होता छोर यह कार्य वहि श्वसन के समय रक्तगत्त प्रांगारद्विनारेय ( 002 ) के उत्सर्जन से क्या जाता ड्े। इसके श्रतिरिक्त रक्त के रसायनिक संगढन से फुफ्फुस का कोई चिशेष सम्बन्ध नहीं द्ोता 1 थह कार्य चूक श्रौर त्वचा के द्वारा किया जाता है ! श्र्धाद्‌ इन दोनों श्रर्ों के कार्य में धटुत कुछ साम्य दोता डै। इसलिए ये दोनों झंग पक दुसरे के पूरक भी होते ह। जय मूल न्ञधिक मात्रा में चनता दे तब स्वेद यडुत कम होता है शरीर त्वचा रूच रहती हद । जब स्वेदु बहुत श्राता है तब सूच बहुत कम बन. है । सून्विपमयता में जब कि चुक्का के द्वारा लवण का उत्लर्ग मली भांति नहीं होता तय व्वचा से स्वेद द्वारा उनका.उत्सगं होने लगता डे । मिह ( एए०० ) जिसका उत्सभ स्वचा के द्वारा साधारणतत्रा नह्टीं के वरावर होता है, सूचविपमयता मैं स्वेदन करने पर इतनी श्रधिक मात्रा में उत्सर्गित होता है कि स्वेद सूख ज्ञाने पर उसके छोटे छोटे कण; जिनको मिद्द ठुपार ( 160: 0०59 के




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