मीराँ प्रेम दीवानी | Meeran Prem Diwani

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Meeran Prem Diwani by रामचंद्र ठाकुर - Ramchandra Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० मीराँंप्रेम दीवानी एक छोटे से टट्ट पर बेठा पॉच साल की बहुरानी को गाजों-बाजों के साथ खिए घर लो रहा था। वरराजा कोई झअ्रशोभनीय पराक्रम न कर बेठे इसलिए वरराजा के दो काका टट्टू के दोनों झोर उस के पागढे पकड़े हुए चल दे थे । टट्ट्ू के पीछे-पीछे आनेवाले स्याने मे घूँघट मिकाल कर बेटी जुई पाँच साल की बहुरानी जरूर कुछ खा रही थीं क्योंकि उन का मुँह बंद था श्र इस से उन के हृदय का भाव व्यक्त करने का समय झभी नहीं झाया था | वरघोछे के झागे बजनेवाले बाजे ब्याह के इच्छुक तरुण हृदयों को आर समरत वातावरण को विचित्र झानन्द की खुमारी से भर रहे थे | पमरी रतनदाई का तकिया-कलास था | दर रोज के सो सौ बार मरी पसरी शब्दों को सुनने पर भी मरने का जरा थी विचार नहीं करती । झाज सुबद इस मरी रतन ने मीराँबाई के सामने मोची के वरघोडे की बात की थी इसलिए सुबद्द से दी मीरँबाई हँसा ठकुरानी को तंग करने लगी । सन जाने रतन ने मीरोँ को क्या समग्ा दिया था कि वर-बहू देखने की मीरों मे अटल जिंह पकड ली थी भर झब जब कि चरघोड़ा राजमहल के श्रागे आा पहुंचा था हंँसा ठक्करानी की इकलौती बेटी का कहीं पता नहीं सग रहा था । ठकुरानी का क्रोध झ्न्त में फूट निकला और बरसा इस मरी रतन पर । मीराँ के पिता को भी गोद खिलानेवाली वयोदुद्धा रतनदाई में पुरानी राजपूती की खुमारी श्र ख्रद्दुज विनोद-दत्ति भी थी । उसका प्रभाव हरेक पर था । उस में राघ ठाकुर या ठकुरानी के चाहे जितने क्रोघ को सदन कर लेने का सादा था | वरघोड़ा देखने का समय दाथ ले निकल रहा था । अपनी बेटी का स्व साव श्रपने समान समसतीं थीं इसलिए दँसा उकुरानी ने क्रोध ही क्रोध में सौबीं वार या इजारवीं बार रतन दाई को थ्रपने गाँव चले जाने को कहा थर किसे पता सौर भी बहुत कुछ कहा परन्तु नीचे वरघोे के बाजे इतने जोर से बजने लगे थे कि ठकुरानी की झ्रावाज़ उस से दब गई श्रौर क्रोध में मात्र उन के होठ दी फड़कते हुए दीखे । रतन सिर नीचा किए हुए खड़ी थी। एकाएक उस की मर




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