जिद्दी | Ziddi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ जिद्दी क्रायदे से तो बहुत पहले मर जाना चाहिए था । रंजी की माँ कहाँ है ? गयी ? बुढ़िया फिर जागी । हाँ अम्माँ कया बुला लाऊँ मेंह पड़ रहा है । नहीं ।...पर है बड़ी. ..वह...ऐसे... छोड़ गयी ? साँस घुटी ना रही थी क्या मेंह बहुत पड़ रहा है ? बुढ़िया को चिन्ता हुई कि तब जलायी केसे जायेगी ? हाँ सहमी हुई श्राशा घोती का किनारा मरोड़ रद्दी थी । जाने रंजी की माँ कहाँ मर गयी न जाने रंजी की माँ पर इतनी ममता क्यों श्रा रही श्री रंजी वैसे तो थे रणजीत श्रौर सिंह बनियापन छिपाने को लगाया गया था पर कहलाते श्रबे रंजी थे । श्रौर यह माता जी खिरिया की दुल्दन मोती की बहू श्रौर रामभरोसे की पत्नी श्रौर न जाने कितनी जगहें. बदल चुकी थीं पर सब श्रभागे मर-मर गये श्रौर उनमें से किसी एक की यादगार रंजी थे । समाज में उनकी हेसियत भी थूदड़ के पेड़ की-सी थी । ज़्यादा कारामद बनने को उनमें उमंग ही न थी । छुटपन में कुछ दिन दिजड़ों की टोली में जा घुसे श्रौर रंजी की माँ को सारा दिन मुददल्ले वालों को गालियाँ बाँटने में बीत जाता । न जाने क्यों उनको ज़िद थी कि वह हिजड़ों की टोली में नहीं बल्कि नौटंकी में गये हैं जो छोटा-मोटा थियेटर होता है । वहाँ भी रंजी की निभी नहीं श्रौर वद पिटकर भाग आये श्रौर श्रब गाँव-भर में श्रपने गाने के लिए मशहूर थे । श्रौर फिर एकदम विद्रोही विचार कहाँ दविजड़ों की टोली में थे श्रौर कहाँ अब झव्वल नम्बर के गुणडों में गिने जाते थे । कुछ भी था पर उनको




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