पुर्णयोग | Purna Yog

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Purna Yog by श्रीनलिनीकांत गुप्त - Shrinalinikant Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ पूर्णयोग को असृतको सहज ही सुखा देता है । योगकी जो मुख्य बात है भगवानमें मुक्त सिद्ध होना उसका ध्यान हठ- योगियोंको नहीं रह पाता वे ऐश्वर्यके मोहमें पड़ जाते हैं । यही कारण है जो प्राय सभी सच्चे योगियोंमें ऐश्वर्यकी ओरसे सिद्धपने की ओरसे एक प्रकारका संकोच अथवा भय दीख पड़ता है । वे ढोग कहा करते हैं कि ये सब तो भूत-प्रेतोंके खेंठ हैं या मार्गके प्रछोभन हैं इन सबसे जितना दूर रहा जाय उतना हो अच्छी है। किसी साधकर्में यदि इस प्रकारका कोई ऐश्वयं आ जाय तो वे ठोग उसे दूर फेंक देनेका ही उपदेश करते हैं । परन्तु यह भी एक अति ही है । हम तो ऐश्वर्य भी चाहते हैं पर वह होगा भगवानका ऐशवय । ऐसी बात तो नहीं है कि भगवत्‌-उपलब्धि और ऐश्वर्य साथ-साथ न रह सकते हों । हठयोगियोंकी यही भूल है कि वे दाक्तिके स्वामी भगवान्‌को भूलकर क़पणकी तरह थक्तिको अपने छिये अपने अन्दर छिपाकर रखते हें । हम जिस पूर्णयोगकी बात कहते हूं वह जगत्‌के लिये मनुष्यजातिके छिये है । हमारे योगका फू विश्वके कल्याणके लिये जगतकर्ममें नियोजित होगा । अन्यान्य योगियोंकी तरह हम ऐश्वर्यका स्याग करना नहीं चाहते पर हठयोगियोकी तरह उसीको सर्वेस्व भी नहीं मानना चाहते । इसके अतिरिक्त हमारे योगका लक्ष्य है पूर्ण रूपसे जगतके साथ सब प्रकारके




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