ब्रह्मा - विद्या सव विद्याओं की परम प्रतिष्ठा | Brahma Vidya sab Vidyao Ki Param Pratishtha

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Brahma Vidya  sab Vidyao Ki Param Pratishtha by स्वामी कृष्णानंद सरस्वती - Swami Krashnanand Sarswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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16 कारण, पल, अथया प्रत्येक की न्यूनता तथा पूर्यता, शुण, दोष अथवा इनके अधिकारी यथाये ज्ञान का भाव हैं, इसखिए ये सब साधना के उपयोगी भंग एक-दूसरे से थक हुए हैं । इदयोग, कर्मयोग, राजयोग, कुण्डलिदीयोग, छानयोग आदि भिन्ननसित्न योगा के सिपय में आस्ति दो रही दे । इनके स्वरूप आदि के यथाधे पान का कभाय हुआ है; शर इन में भी कोई क्रियात्सक समन्यय नें है। इन में से फिसी एक का भवलर्बन करके शन्य सब की भवदेलना तथा खण्डन स्या जाता है। परन्तु वास्तविकता यह हे कि ये मिज्न-भिन्न योग एक दूसरे से तिवात्त पथकू नहीं हं। इन सब का ध्येय एक है। इनके साधन आदि का भी गण तथ। मुख्य सूप से भद दै, नितान्त भेद नहीं । इसलिए इन सब योगें। का मचिफारा जुसार उचित मात्रा में उपयोग नदूं। किया जाता । एक ही योग का संकुचित, अपर; मलिन, एकंमी रूप सें आयुभर सेवन होता है, जिससे दुराग्रद, अशास्ति, राग-द्वेप, एक दूसरे से चूगा--नाधेप -की श्र होती है । साधक कषपने उदय की आर कुछ उत्तति नहीं कर पाता । सधे जिज्ञासु भी मिर-भिथ साधने तथा योगों के रदस्थ को नहीं समझते, अर आयुभर यत्र करने पर मी सफलमनोरथ नं होते । थे अपना दित कु सिद्द नदीं कर पंत शोर संसार में नास्तिकता की चुद्धि; का कारण बनते हैँ । शाप्यात्मिक क्षेत्र की इस शोचनीय दूशा से प्रेरित होकर ही इस अंथ का मिंमांण डिपा गया है । इन सब साधनों में से प्रत्येक का विस्तार से निरूपण नहीं फिया गया। उस उस साधन की जानझारी के लिए तद्विपयक स्वरत्र प्रंथो का अवलोफन ज्ञरूरी होगा । यहां पर संक्षेप से इन मिन्न-मिन्न साधना तथा योगों अर्थात्‌ कहिंसा, सत्य, शोच, शपरिम्रह, दानादि सामान्य धर्म, निम्शाम करे, मिवेक, पैराग्य, शम, दम, नितिक्षा, उपरति, शाख्र तथा गुर में श्रद्धा, सम/घान, सुमुष्ा, श्रवण, मनन, निदिष्यासन, हृठयोग, कर्मचोग, भक्तियोग, राभयोग आदि मिध्न योगों के झुद्ध स्वरुप, भेद, फू, शुश, दोप, शापस में फारण-रायेनभाव, इनडी उचित मर्यादा आदि का संक्षेप से निरुपण किया गया दें । इन के मनन से साधक सपनी साघना की न्यूनता को जांच कर उसे पु करता हुआ परम लव को प्राप्त करने केन्योग्य हो सकता दै । फिगोप रूप से इस बात को जताने का यरन किया गया हैं हिं निमकामकम, पेराग्य, निदिध्यासन, योग, श्चण, सनन शादि फिसी एक साधन की सवहेलना--उपक्षा--करने से वया घुठि उत्पन्न हो जाती दि, सौर यदि एक ही साधन निप्कामस कर्म छादि पर साघना को सीमित कर दिया जाए और अन्य वेराग्य झादि साधनों की अवरेलना की जाए तो साधना में फया अपू्णता रद जादी है । साधनों के इस रदस्प को प्रदण करके साधक अपनी भूल को सुधार सकता दे शर मय साधनों का उचित उपयोग कर सकता हैं । घेद, उपनिपद्‌ आदि शास्त्रों से अनन्य घद्धा ही आध्यात्मिक साध्य की सिद्धि का सुन हू । इस कलिकारू में अध्यात्म के मूल पर कुददाद़ा चल जाना रुदाभाविक ही है। इस एक दोष के आा जाने से सम्पूर साधनों पर इुल्द्ादा स्वत: ही 'चल जाता है श्र सम्पूर्ण दोषसमूद मी पृद्धि झम्तिदत तथा स्वच्छन्द रूप से दो जाती हैं । आानक्ल नास्तिकता की बृद्धि का मुख फारण ही यही दे कि शास्त्र में उचित शुद्ध श्रद्धा का नितान्त अभाव सा हो रा हे । जैसे पढ़िछें आरम्भ में ही कहा गया दि कि इंदयर, जीव, परलोक, कम, धर्म के ज्ञानादि का झूख सो शास्त्र दी दि । एफ शास्थ्र को रयाग देन से इंइयर, जीव, परलोक, कमें आदि सब स्वतः भेद, भ कं




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